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________________ स्याद्वाद सप्तभंगीमें प्रथम और द्वितीय भंगोंके युगपत् कह सकनेकी सामर्थ्य न होनेके कारण अवक्तव्य कहना / पहले प्रकारमें वह एक व्यापक रूप है जो वस्तुके सामान्य पूर्ण रूपपर लागू होता है और दूसरा प्रकार विवक्षित दो धर्मोंको युगपत् न कह सकनेकी दृष्टिसे होनेके कारण वह एक धर्मके रूपमें सामने आता है अर्थात् वस्तुका एक रूप अवक्तव्य भी है और एक रूप वक्तव्य भी, जो शेष धर्मोंके द्वारा प्रतिपादित होता है। यहाँ तक कि 'अवक्तव्य' शब्दके द्वारा भी उसीका स्पर्श होता है। दो धर्मोको युगपत् न कह सकनेकी दृष्टिसे जो अवक्तव्य धर्म फलित होता है वह तत्तत् सप्तभंगियोंमें जुदा-जुदा ही है, यानी सत् और असत्को युगपत् न कह सकनेके कारण जो अवक्तव्य धर्म होगा वह एक भंगसे जुदा होगा। अवक्तव्य और वक्तव्यको लेकर जो सप्तभंगी चलेगी उसमेंका अवक्तव्य भी वक्तव्य और अवक्तव्यको युगपत् न कह सकनेके कारण ही फलित होगा, वह भी एक धर्मरूप ही होगा। सप्तभंगीमें जो अवक्तव्य धर्म विवक्षित है वह दो धर्मोके युगपत् कहनेकी असामर्थ्यके कारण फलित होनेवाला ही विवक्षित है। वस्तुके पूर्णरूपवाला अवक्तव्य भी यद्यपि एक धर्म ही होता है, पर उसका इस सप्तभंगीवाले अवक्तव्यसे भेद है। उसमें भी पूर्णरूपसे अवक्तव्यता और अंशरूपसे वक्तव्यताकी विवक्षा करनेपर सप्तभंगी बनाई जा सकती है। किन्तु निरुपाधि अनिर्वचनीयता और विवक्षित दो धर्मोको युगपत् कह सकनेकी असामर्थ्यजन्य अवक्तव्यतामें व्याप्य-व्यापकरूपसे भेद तो है ही। ___'सत्'विषयक सप्तभंगीमें प्रथमभंग (1) स्यादस्ति घटः, दूसरा इसका प्रतिपक्षी (2) स्यान्नास्ति घटः, तीसरा भंग युगपत् कहनेकी असामर्थ्य होनेसे (3) स्यादवक्तव्यो घटः; चौथा भंग क्रमसे प्रथम और द्वितीयकी विवक्षा होनेपर (4) स्यादुभयो घटः, पाँचवाँ प्रथम समयमें अस्तिकी और द्वितीय समयमें अवक्तव्यको क्रमिक विवक्षा होनेपर (5) स्यादस्ति अवक्तव्यो घटः, छठवाँ प्रथम समयमें नास्ति और द्वितीय समयमें अवक्तव्यकी क्रमिक विवक्षा होनेपर (6) स्यान्नास्ति अवक्तव्यो घटः, सातवाँ प्रथम समयमें अस्ति, द्वितीय समयमें नास्ति और तृतीय समयमें अवक्तव्यकी क्रमिक विवक्षा होनेपर (7) स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यो घटः, इस प्रकार सात भंग होते हैं / प्रथम भंग-घटका अस्तित्व स्वचतुष्टयकी दृष्टिसे है। उसके अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ही अस्तित्वके नियामक हैं / 1. घड़ेके स्वचतुष्टय और परचतुष्टयका विवेचन तत्त्वार्थवार्तिक (16) में इस प्रकार है (1) जिसमें 'घट' बुद्धि और 'घट' शब्दका व्यवहार हो वह स्वात्मा तथा उससे भिन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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