________________ जैनदर्शने उनका अधिक-से-अधिक विकास सात रूपमें ही सम्भव हो सकता है। सत्य तो त्रिकालाबाधित होता है, अतः तर्कजन्य प्रश्नोंकी अधिकतम सम्भावना करके ही उनका समाधान इस सप्तभंगी प्रक्रियासे किया गया है / __ वस्तुका निजरूप तो वचनातीत-अनिर्वचनीय है। शब्द उसके अखण्ड आत्मरूप तक नहीं पहुँच सकते / कोई ज्ञानी उस अवक्तव्य, अखण्ड वस्तुको कहना चाहता है तो वह पहले उसका 'अस्ति' रूपमें वर्णन करता है। पर जब वह देखता है कि इससे वस्तुका पूर्ण रूप वर्णित नहीं हो सकता है, तो उसका 'नास्ति' रूपमें वर्णन करनेकी ओर झुकता है / किन्तु फिर भी वस्तुकी अनन्तधर्मात्मकताकी सीमाको नहीं छू पाता / फिर वह कालक्रमसे उभयरूपमें वर्णन करके भी उसकी पूर्णताको नहीं पहुँच पाता, तब बरबस अपनी तथा शब्दकी असामर्थ्यपर खीझ कर कह उठता है "यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" ( तैत्तिरी० 2 / 4 / 1) अर्थात् जिसके स्वरूपकी प्राप्ति वचन तथा मन भी नहीं कर सकते, वे भी उससे निवृत्त हो जाते हैं, ऐसा वह वचन तथा मनका अगोचर अखण्ड अनिर्वचीय अनन्तधर्मा वस्तुतत्त्व / इस स्थितिके अनुसार वह मूलरूप तो अवक्तव्य है / उसके कहनेकी चेष्टा जिस धर्मसे प्रारम्भ होती है वह तथा उसका प्रतिपक्षी दूसरा, इस तरह तीन धर्म मुख्य हैं, और इन्हीं तीनका विस्तार सप्तभंगीके रूपमें सामने आता है। आगेके भंग वस्तुतः स्वतन्त्र भंग नहीं हैं, वे तो प्रश्नोंकी अधिकतम सम्भावनाके रूप हैं। श्वे० आगम ग्रन्थोंमें यद्यपि कण्ठोक्त रूपमें 'सिय अस्थि सिय णत्थि सिय अवत्तव्वा' रूप तीन भंगोंके नाम मिलते हैं, पर भगवतीसूत्र ( 12 / 10 / 469) में जो आत्माका वर्णन आया है उसमें स्पष्ट रूपसे सातों भंगोंका प्रयोग किया गया है' / आ० कुन्दकुन्दने पंचास्तिकाय ( गा० 14 ) में सात भंगोंके नाम गिनाकर 'सप्तभंग' शब्दका भी प्रयोग किया है। इसमें अन्तर इतना ही है कि भगवतीसूत्रमें अवक्तव्य भंगको तीसरा स्थान दिया है जब कि कुन्दकुन्दने उसे पंचास्तिकायमें चौथे नम्बर पर रखकर भी प्रवचनसार ( गा० 23 ) में इसे तीसरे नम्बर पर ही रखा है। उत्तरकालीन दिगम्बर-श्वेताम्बर तर्क-ग्रन्थोंमें इस भंगका दोनों ही क्रमसे उल्लेख मिलता है। अवक्तव्य भंगका अर्थ: अवक्तव्य भंगके दो अर्थ होते हैं। एक तो शब्दकी असामर्थ्यके कारण वस्तुके अनन्तधर्मा स्वरूपको वचनागोचर अतएव अवक्तव्य कहना और दूसरा विवक्षित 1. देखो, जैनतर्कवातिक प्रस्तावना पृ० 44-49 / 1. देखो, अकलङ्कअन्यत्रय टि० पृ० 166 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org