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________________ स्याद्वाद अपुनरुक्त भंग सात हैं : चार कोटियोंमें तीसरी उभयकोटि तो सत् और असत् दो को मिलाकर बनाई गई है। मूल भङ्ग तो तीन ही हैं-सत्, असत् और अनुभय अर्थात् अवक्तव्य / गणितके नियमके अनुसार तीनके अपुनरुक्त विकल्प सात ही हो सकते हैं, अधिक नहीं। जैसे-सोंठ, मिरच और पीपलके प्रत्येक-प्रत्येक तीन स्वाद और द्विसंयोगी तीन-( सोंठ-मिरच, सोंठ-पीपल और मिरच-पीपल ) तथा एक त्रिसंयोगी ( सोंठ-मिरच-पीपल मिलाकर ) इस तरह अपुनरुक्त स्वाद सात ही हो सकते हैं, उसी तरह सत्, असत् और अनुभय ( अवक्तव्य )के अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं / भ० महावीरने कहा कि वस्तु इतनी विराट् है कि उसमें चार कोटियाँ तो क्या, इनके मिलान-जुड़ानके बाद अधिक-से-अधिक सम्भव होनेवाली सात कोटियाँ भी विद्यमान हैं। आज लोगोंका प्रश्न चार कोटियोंमें घूमता है, पर कल्पना तो एक-एक धर्ममें अधिक-से-अधिक सात प्रकारकी हो सकती है। ये सातों प्रकारके अपुनरुक्त धर्म वस्तुमें विद्यमान हैं। यहाँ यह बात खास तौरसे ध्यानमें रखने की है कि एक-एक धर्मको केन्द्र में रखकर उसके प्रतिपक्षी विरोधी धर्मके साथ वस्तुके वास्तविकरूप या शब्दकी असामर्थ्यजन्य अवक्तव्यताको मिलाकर सात भंगों या सात धर्मोंकी कल्पना होती है। ऐसे असंख्य सात-सात भंग प्रत्येक धर्मकी अपेक्षासे वस्तुमें सम्भव हैं। इसलिये वस्तुको सप्तधर्मा न कहकर अनन्तधर्मा या अनेकान्तात्मक कहा गया है। जब हम अस्तित्व धर्मका विचार करते हैं तो अस्तित्वविषयक सात भंग बनते हैं और जब नित्यत्व धर्मकी विवेचना करते हैं तो नित्यत्वको केन्द्रमें रखकर सात भंग बन जाते हैं। इस तरह असंख्य सातसात भंग वस्तुमें सम्भव होते हैं / सात ही भंग क्यों ?: __ 'भंग सात ही क्यों होते हैं ?' इस प्रश्नका एक समाधान तो यह कि तीन बस्तुओंके गणितके नियमके अनुसार अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं। दूसरा समाधान है कि प्रश्न सात प्रकारके ही होते हैं / 'प्रश्न सात प्रकारके क्यों होते हैं ?' इसका उत्तर है कि जिज्ञासा सात प्रकारकी ही होती है। 'जिज्ञासा सात प्रकारकी क्यों होती है ?' इसका उत्तर है कि संशय सात प्रकारके ही होते हैं / 'संशय सात प्रकारके क्यों हैं ?' इसका जवाब है कि वस्तुके धर्म ही सात प्रकारके हैं। तात्पर्य यह कि सप्तभंगीन्यायमें मनुष्य-स्वभावकी तर्कमूलक प्रवृत्तिको गहरी छानबीन करके वैज्ञानिक आधारसे यह निश्चय किया गया है कि आज जो 'सत्, असत्, उभय और अनुभयकी' चार कोटियाँ तत्त्वविचारकै क्षेत्रमें प्रचलित हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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