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________________ 374 जैनदर्शन निष्कर्ष इतना ही है कि प्रत्येक अखण्ड तत्त्व या द्रव्यको व्यवहारमें उतारनेके लिये उसका अनेक धर्मोके आकारके रूपमें वर्णन किया जाता है। उस द्रव्यको छोड़कर धर्मोकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। दूसरे शब्दोंमें अन्ततः गुण, पर्याय और धर्मोको छोड़कर द्रव्यका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है / कोई ऐसा समय नहीं आ सकता, जब गुणपर्यायशून्य द्रव्य पृथक मिल सके, या द्रव्यसे भिन्न गुण और पर्यायें दिखाई जा सकें। इस तह स्याद्वाद इस अनेकान्तरूप अर्थको निर्दोषपद्धतिसे वचनव्यवहार में उतारता है और प्रत्येक वाक्यकी सापेक्षता और आंशिक स्थितिका बोध कराता है। सप्तभंगी: वस्तुकी अनेकान्तात्मकता और भाषाके निर्दोष प्रकार-स्याद्वादको समझ लेनेके बाद सप्तभंगीका स्वरूप समझने में आसानी हो जाती है। 'अनेकान्त' में यह बतलाया गया है कि वस्तुमें सामान्यतया विभिन्न अपेक्षाओंसे अनन्तधर्म होते हैं। विशेषतः अनेकान्तका प्रयोजन 'प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्मके साथ वस्तुमें रहता है' यह प्रतिपादन करना ही है। यों तो एक पुद्गलमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, हलका, भारी, सत्त्व, एकत्व आदि अनेक धर्म गिनाये जा सकते हैं। परन्तु 'सत्' असत्का अविनाभावी है और एक अनेकका अविनाभावी है' यह स्थापित करना ही अनेकान्तका मुख्य लक्ष्य है। इसी विशेष हेतुसे प्रमाणाविरोधी विविप्रतिषेधको कल्पनाको सप्तभंगी कहते हैं / ___ इस भारतभूमिमें विश्वके सम्बन्धसे सत्, असत्, उभय और अनुभय ये चार पक्ष वैदिककालसे ही विचारकोटिमें रहे हैं। "सदेव सौम्येदमग्र आसीत' ( छान्दो० 6 / 2) "असदेवेदमग्र आसीत्" ( छान्दो० 3 / 19 / 1 ) इत्यादि वाक्य जगत्के सम्बन्धमें सत् और असत् रूपसे परस्पर-विरोधी दो कल्पनाओंको स्पष्ट उपस्थित कर रहे हैं। तो वहीं सत् और असत्, इस उभयरूपताका तथा इन सबसे परे वचनागोचर तत्त्वका प्रतिपादन करनेवाले पक्ष भी मौजूद थे। बुद्धके अव्याकृतवाद और संजयके अज्ञानवादमें इन्हीं चार पक्षोंके दर्शन होते हैं। उस समयका वातावरण ही ऐसा था कि प्रत्येक वस्तुका स्वरूप 'सत्', असत्, उभय और अनुभय' इन चार कोटियोंसे विचारा जाता था। भगवान् महावीरने अपनी विशाल और उदार तत्त्वदृष्टिसे वस्तुके विराटरूपको देखा और बताया कि वस्तुके अनन्तधर्ममय स्वरूपसागरमें ये चार कोटियाँ तो क्या, ऐसी अनन्त कोटियाँ लहरा रही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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