SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याद्वाद 373 उत्तरका उत्पाद दो चीजें नहीं है, किन्तु एक कारणसे उत्पन्न होनेके कारण पूर्वविनाश ही उत्तरोत्पाद है। जो उत्पन्न होता है वही नष्ट होता है और वही ध्रुव है / यह सुननेमें तो अटपटा लगता है कि 'जो उत्पन्न होता है और नष्ट होता है वह ध्रुव कैसे हो सकता है ? यह तो प्रकट विरोध है; परन्तु वस्तुस्थितिका थोड़ी स्थिरतासे विचार करने पर यह कुछ भी अटपटा नहीं लगता। इसके माने बिना तत्त्वके स्वरूपका निर्वाह ही नहीं हो सकता। भेदाभेदात्मक तत्त्व : गुण और गुणीमें, सामान्य और सामान्यवान्में, अवयव और अवयवीमें, कारण और कार्यमें सर्वथा भेद माननेसे गुणगुणीभाव आदि नहीं ही बन सकते। सर्वथा अभेद मानने पर भी यह गुण है और यह गुणी, यह व्यवहार नहीं हो सकता / गुण यदि गुणीसे सर्वथा भिन्न है, तो अमुक गुणका अमुक गुणीसे ही नियत सम्बन्ध कैसे किया जा सकता है ? अवयवी यदि अवयवोंसे सर्वथा भिन्न है, तो एक अवयवी अपने अवयवोंमें सर्वात्मना रहता है, या एकदेशसे ? यदि पूर्णरूपसे; तो जितने अवयव हैं उतने ही अवयवी मानना होंगे। यदि एकदेशसे; तो जितने अवयव हैं उतने प्रदेश उस अवयवीके स्वीकार करना होगें। इस तरह सर्वथा भेद और अभेद पक्षमें अनेक दूषण आते हैं। अतः तत्त्वको पूर्वोक्त प्रकारसे कथञ्चित् भेदाभेदात्मक मानना चाहिये। जो द्रव्य है वही अभेद है और जो गुण और पर्याय हैं वही भेद है / दो पृथसिद्ध द्रव्योंमें जिस प्रकार अभेद काल्पनिक है उसी तरह एक द्रव्यका अपने गुण और पर्यायोंसे भेद मानना भी सिर्फ समझने और समझानेके लिये है / गुण और पर्यायको छोड़कर द्रव्यका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, जो इनमें रहता हो / इसी तरह 'अन्यानन्यात्मक और २पृथक्त्वापृथक्त्वात्मक तत्त्वकी भी व्याख्या कर लेनी चाहिये। धर्म-धर्मिभावका व्यवहार भले ही आपेक्षिक हो, पर स्वरूप तो स्वतःसिद्ध ही है / जैसे-एक ही व्यक्ति विभिन्न अपेक्षाओंसे कर्ता, कर्म, करण आदि कारकरूपसे व्यवहार में आता है, पर उस व्यक्तिका स्वरूप स्वतःसिद्ध ही हुआ करता है; उसी तरह प्रत्येक पदार्थमें अनन्तधर्म स्वरूप-सिद्ध होकर भी परकी अपेक्षासे व्यवहारमें आते हैं। 2. आप्तमो० श्लो० 28 / 1. आप्तमी० श्लो० 61 / 3. आप्तमी० श्लो० 73-75 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy