SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 372 जैनदर्शन अतीत पर्यायका नाश कर जिस प्रकार स्वयं अस्तित्वमें आई है उसी तरह उत्तर पर्यायको उत्पन्न कर स्वयं नष्ट हो जायगी / अतीतका व्यय और वर्तमानका उत्पाद दोनोंमें द्रव्यरूपसे ध्रुवता है ही। यह त्रयात्मकता वस्तुकी जान है। इसीको स्वामी समन्तभद्र' तथा भट्ट कुमारिलने लौकिक दृष्टान्तसे इस प्रकार समझाया है कि जब सोनेके कलशको मिटाकर मुकुट बनाया गया, तो कलशार्थीको शोक हुआ, मुकुटाभिलाषीको हर्ष और सुवर्णार्थीको माध्यस्थ्यभाव रहा। कलशार्थीको शोक कलशके नाशके कारण हुआ, मुकुटाभिलाषीको हर्ष मुकुटके उत्पादके कारण तथा सुवर्णार्थीको तटस्थता दोनों दशाओंमें सुवर्णके बने रहनेके कारण हुई है। अतः वस्तु उत्पादादित्रयात्मक है / जब दूधको जमाकर दही बनाया गया, तो जिस व्यक्तिको दूध खानेका व्रत है वह दहीको नहीं खायगा, पर जिसे दही खानेका व्रत है वह दहीको तो खा लेगा, पर दूधको नहीं खायगा, और जिसे गोरसके त्यागका व्रत है वह न दूध खायगा और न दही; क्योंकि दोनों ही अवस्थाओंमें गोरस है ही। इससे ज्ञात होता है कि गोरसकी ही दूध और दही दोनों क्रमिक पर्यायें थीं। ___पातञ्जल महाभाष्यमें भी पदार्थके त्रयात्मकत्वका समर्थन शब्दार्थ मीमांसाके प्रकरण में मिलता है / आकृति नष्ट होने पर भी पदार्थकी सत्ता बनी रहती है। एक ही क्षणमें वस्तुके त्रयात्मक कहनेका स्पष्ट अर्थ यह है कि पूर्वका विनाश और "घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् / शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥"-आप्तमी० श्लो० 56 / "वर्धमानकमङ्ग च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तराथिनः // हेमाथिनतु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु यात्मकम् / न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् / स्थित्वा विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता // " -मी० श्लो० पृ० 610 / 2. “पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवतः।। अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् // " , -आप्तमी० श्लो० 69 / 3. "द्रव्यं हि नित्यमाकृतिरनित्या। सुवर्ण कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डा कृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते, पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्डः पुनरपरया आकृत्या युक्तः खदिराङ्गारसदृशे कुण्डले भवतः / आकृतिरन्या अन्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव, आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते।" -पात० महाभा० // 11 // योगभा० 4 / 13 // Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy