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________________ स्याद्वाद 371 कार्यकारणभाव भी इस पक्षमें नहीं बन सकता। अतः समस्त लोक-परलोक तथा कार्यकारणभाव आदिको सुव्यवस्थाके लिये पदार्थों में परिवर्तनके साथ-ही-साथ उसकी मौलिकता और अनादिअनन्तरूप द्रव्यत्वका आधारभूत ध्रुवत्व भी स्वीकार करना ही चाहिये। इसके माने बिना द्रव्यका मौलिकत्व सुरक्षित नहीं रह सकता। अतः प्रत्येक द्रव्य अपनी अनादि अनन्त धारामें प्रतिक्षण सदृश, विसदृश, अल्पसदृश, अर्धसदृश आदि अनेकरूप परिणमन करता हुआ भी कभी समाप्त नहीं होता, उसका समूल उच्छेद या विनाश नहीं होता। आत्माको मोक्ष हो जाने पर भी उसकी समाप्ति नहीं होती, किन्तु वह अपने शुद्धतम स्वरूपमें स्थिर हो जाता है / उस समय उसमें वैभाविक परिणमन नहीं होकर द्रव्यगत उत्पाद-व्यय स्वरूपके कारण स्वभावभूत सदृश परिणमन सदा होता रहता है। कभी भी यह परिणमनचक्र रुकता नहीं है और न कभी कोई भी द्रव्य समाप्त ही हो सकता है। अतः प्रत्येक द्रव्य नित्यानित्यात्मक है। यद्यपि हम स्वयं अपनी बाल, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओंमें बदल रहे हैं, फिर भी हमारा एक ऐसा अस्तित्व तो है ही, जो इन सब परिवर्तनोंमें हमारी एकरूपता रखता है। वस्तुस्थिति जब इस तरह परिणामी-नित्यकी है, तब यह शंका कि 'जो नित्य है वह अनित्य कैसा ?' निर्मूल है; क्योंकि परिवर्तनोंके आधारभूत पदार्थकी सन्तानपरम्परा उसके अनाद्यनन्त सत्त्वके बिना बन ही नहीं सकती। यही उसकी नित्यता है जो अनन्त परिवर्तनोंके बावजूद भी वह समाप्त नहीं होता और अपने अतीतके संस्कारोंको लेता-छोड़ता वर्तमान तक आता है और अपने भविष्यके एक-एक क्षणको वर्तमान बनाता हुआ उन्हें अतीतके गह्वरमें ढकेलता जाता है, पर कभी स्वयं रुकता नहीं है। किसी ऐसे कालकी कल्पना नहीं की जा सकती, जो स्वयं अंतिम हो, जिसके बाद दूसरा काल नहीं आनेवाला हो / कालकी तरह समस्त जगत्के अणु-परमाणु और चेतन आदिमेंसे कोई एक या सभी कभी निर्मूल समाप्त हो जायेंगे, ऐसी कल्पना ही नहीं होती। यह कोई बुद्धिकी सीमाके परेकी बात नहीं है / बुद्धि 'अमुक क्षणमें अमुक पदार्थकी अमुक अवस्था होगी' इस प्रकार परिवर्तनका विशेषरूप न भी जान सके, पर इतना तो उसे स्पष्ट भान होता है कि ‘पदार्थका भविष्यके प्रत्येक क्षणमें कोई-न-कोई परिवर्तन अवश्य होगा।' जब द्रव्य अपनेमें मौलिक है, तब उसकी समाप्ति, यानी समूल नाशका प्रश्न ही नहीं है / अतः पदार्थमात्र, चाहे वह चेतन हो, या अचेतन, परिणामीनित्य है / वह प्रतिक्षण त्रिलक्षण है। हर समय कोई एक पर्याय उसकी होगी है / वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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