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________________ 370 जैनदर्शन एकानेकात्मक तत्त्व : हम पहले लिख चुके हैं कि दो द्रव्य व्यवहारके लिये ही एक कहे जा सकते हैं / वस्तुतः दो पृथक् स्वतंत्रसिद्ध द्रव्य एकसत्ताक नहीं हो सकते। पुद्गल द्रव्यके अनेक अणु जब स्कन्ध अवस्थाको प्राप्त होते हैं तब उनका ऐसा रासायनिक मिश्रण होता है, जिससे ये अमुक काल तक एकसत्ताक जैसे हो जाते हैं / ऐसी दशामें हमें प्रत्येक द्रव्यका विचार करते समय द्रव्यदृष्टिसे उसे एक मानना होगा और गुण तथा पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेक / एक ही मनुष्यजीव अपनी बाल, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओंकी दृष्टिसे अनेक अनुभवमें आता है। द्रव्य अपनी गुण और पर्यायोंसे, संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदिकी अपेक्षा भिन्न होकर भी चूंकि द्रव्यसे पृथक गुण और पर्यायोंकी सत्ता नहीं पाई जाती, या प्रयत्न करने पर भी हम द्रव्यसे गुणपर्यायोंका विवेचन-पृथक्करण नहीं कर सकते, अतः वे अभिन्न है / सत्सामान्यकी दृष्टिसे समस्त द्रव्योंको एक कहा जा सकता है और अपने-अपने व्यक्तित्वकी दृष्टिसे पृथक् अर्थात् अनेक। इस तरह समग्र विश्व अनेक होकर भी व्यवहारार्थ संग्रहनयकी दृष्टिसे एक कहा जाता है। एक द्रव्य अपने गुण और पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेकात्मक है / एक ही आत्मा हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, ज्ञान आदि अनेक रूपोंसे अनुभव में आता है। द्रव्यका लक्षण अन्वयरूप है, जब कि पर्याय व्यतिरेकरूप होती है। द्रव्यकी संख्या एक है और पर्यायोंकी अनेक / द्रव्यका प्रयोजन अन्वयज्ञान है और पर्यायका प्रयोजन है व्यतिरेक ज्ञान / पर्यायें प्रतिक्षण नष्ट होती हैं और द्रव्य अनादि अनन्त होता है। इस तरह एक होकर भी द्रव्यकी अनेकरूपता जब प्रतीतिसिद्ध है तब उसमें विरोध, संशय आदि दूषणोंका कोई. अवकाश नहीं है। नित्यानित्यात्मक तत्त्व : ___ यदि द्रव्यको सर्वथा नित्य माना जाता है तो उसमें किसी भी प्रकार के परिणमनकी संभावना नहीं होनेसे कोई अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी और अर्थक्रियाशून्य होनेसे पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष, लेन-देन आदिकी समस्त व्यवस्थाएँ नष्ट हो जायँगी। यदि पदार्थ एक जैसा कूटस्थ नित्य रहता है तो जगके प्रतिक्षणके परिवर्तन असंभव हो जायँगे / और यदि पदार्थको सर्वथा विनाशी माना जाता है तो पूर्वपर्यायका उत्तरपर्यायके साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध न होनेके कारण लेन-देन, बन्ध-मोक्ष, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि व्यवहार उच्छिन्न हो जायँगे। जो करता है उसके भोगनेका क्रम ही नहीं रहेगा। नित्य पक्षमें कर्तृत्व नहीं बनता, तो अनित्य पक्षमें करनेवाला एक और भोगनेवाला दूसरा होता है / उपादान-उपादेयभावमूलक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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