________________ स्याद्वाद होती है और न अधिक / उत्पाद होता है पर्यायका / द्रव्य अपने द्रव्यरूपसे कारण होता है और पर्यायरूपसे कार्य / जो पर्याय उत्पन्न होने जा रही है वह, उत्पत्तिके पहले पर्यायरूपमें तो नहीं है अतः उसका जो यह अभाव है वही प्रागभाव है / यह प्रागभाव पूर्वपर्यायरूप होता है, अर्थात् 'घड़ा' पर्याय जबतक उत्पन्न नहीं हुई, तबतक वह 'असत्' है और जिस मिट्टी द्रव्यसे वह उत्पन्न होनेवाली है उस, द्रव्यकी घट से पहलेकी पर्याय घटका प्रागभाव कही जाती है। यानी वही पर्याय नष्ट होकर घट पर्याय बनती है, अतः वह पर्याय घट-प्रागभाव है। इस तरह अत्यन्त सूक्ष्म कालकी दृष्टि से पूर्वपर्याय ही उत्तर-पर्यायका प्रागभाव है, और सन्ततिकी दृष्टिसे यह प्रागभाव अनादि भी कहा जाता है। पूर्वपर्यायका प्रागभाव तत्पूर्व पर्याय है, तथा तत्पूर्वपर्यायका प्रागभाव उससे भी पूर्वकी पर्याय होगा, इस तरह सन्ततिकी दृष्टिसे यह अनादि होता है। यदि कार्य-पर्यायका प्रागभाव नहीं माना जाता है, तो कार्यपर्याय अनादि हो जायगी और द्रव्यमें त्रिकालवर्ती सभी पर्यायोंका एक कालमें प्रकट सत्भाव मानना होगा, जो कि सर्वथा प्रतीतिविरुद्ध है। प्रध्वंसाभाव: द्रव्यका विनाश नहीं होला, विनाश होता है पर्यायका / अतः कारणपर्यायका नाश कार्यपर्यायरूप होता है, कारण नष्ट होकर कार्य वन जाता है। कोई भी विनाश सर्वथा अभावरूप या तुच्छ न होकर उत्तरपर्यायरूप होता है / घड़ा पर्याय नष्ट होकर कपाल पर्याय बनती है, अतः घटविनाश कपाल (खपरियाँ ) रूप ही फलित होता है। तात्पर्य यह कि पूर्वका नाश उत्तररूप होता है। यदि यह प्रध्वंसाभाव न माना जाय तो सभी पर्याय अनन्त हो जायेंगी, यानी वर्तमान क्षण में / अनादिकालसे अब तक हुई सभी पर्यायोंका सद्भाव अनुभवमें आना चाहिये, जो कि असम्भव है। वर्तमानमें तो एक ही पर्याय अनुभवमें आती है। यह शंका भी नहीं ही हो सकती कि 'घटविनाश यदि कपालरूप है तो कपालका विनाश होने पर, यानी घटविनाशका नाश होनेपर फिर घड़ेको पुनरुज्जीवित हो जाना चाहिये, क्योंकि विनाशका विनाश तो सद्भावरूप होता है'; क्योंकि कारणका उपमर्दन करके तो कार्य उत्पन्न होता है पर कार्यका उपमर्दन करके कारण नहीं। उपादानका उपमर्दन करके उपादेयकी उत्पत्ति ही सर्वजनसिद्ध है। प्रागभाव ( पूर्वपर्याय ) और प्रध्वंसाभाव ( उत्तर पर्याय ) में उपादान-उपादेयभाव है / प्रागभावका नाश करके प्रध्वंस उत्पन्न होता है, पर प्रध्वंसका नाश करके प्रागभाव पुनरुज्जीवित नहीं हो सकता। जो नष्ट हुआ, वह नष्ट हुआ / नाश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org