________________ 366 . जैनदर्शन रूपमें दिखाई देता है तो आपको यह मानने और कहनेमें क्यों कष्ट होता है कि 'घड़ा द्रव्यरूपसे एक होकर भी अपने गुण धर्म और शक्ति आदिकी दृष्टिसे अनेक है।' जब प्रत्यक्षसे वस्तुमें अनेक विरोधी धर्मोका स्पष्ट प्रतिभास हो रहा है, वस्तु स्वयं अनन्त विरोधी धर्मोंका अविरोधी क्रीड़ास्थल है, तब हमें क्यों संशय और विरोध उत्पन्न करना चाहिये ? हमें उसके स्वरूपको विकृतरूपमें देखनेकी दुर्दृष्टि तो नहीं करनी चाहिए। हम उस महान् ‘स्यात्' शब्दको, जो वस्तुके इस पूर्ण रूपकी झाँकी सापेक्षभावसे बताता है, विरोध, संशय जैसी गालियोंसे दुरदुरात हैं ! किमाश्चर्यमतः परम् / यहाँ धर्मकीतिका यह श्लोकांश ध्यानमें आ जाता है. “यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् / -प्रमाणवा० 2 / 210 / अर्थात् यदि यह चित्ररूपता-अनेकधर्मता वस्तुको स्वयं रुच रही है, उसके बिना उसका अस्तित्व ही सम्भव नहीं है, तो हम बीच में काजी बननेवाले कौन ? जगत्का एक-एक कण इस अनन्तधर्मताका आकर है / हमें तो सिर्फ अपनी दृष्टिको ही निर्मल और विशाल बनानेकी आवश्यकता है। वस्तुमें विरोध नहीं है। विरोध तो हमारी दृष्टियोंमें है / और इस दृष्टि विरोध-ज्वरकी अमृता ( गुरबेल ) 'स्यात्' शब्द है, जो रोगीको तत्काल कटु तो अवश्य लगती है, पर इसके बिना यह दृष्टि-विषमज्वर उतर भी नहीं सकता। वस्तुको अनन्तधर्मात्मकता : _ 'वस्तु अनेकान्तरूप है' यह बात थोड़ा गम्भीर विचार करते ही अनुभवमें आ जाती है, और यह भी प्रतिभासित होने लगता है कि हमारे क्षुद्र ज्ञानने कितनी उछल-कूद मचा रखी है तथा वस्तुके विराट स्वरूपके साथ खिलवाड़ कर रखी है। पदार्थ भावरूप भी है और अभावरूप भी है। यदि सर्वथा भावरूप माना जाय, तो.प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव इन चार अभावोंका लोप हो जानेसे पर्यायें भी अनादि, अनन्त और सर्वसंकररूप हो जायेंगी तथा एक द्रश्य दूसरे द्रव्यरूप होकर प्रतिनियत द्रव्यव्यवस्थाको ही समाप्त कर देगा। प्रागभाव: ___ कोई भी कार्य अपनी उत्पत्तिके पहले 'असत्' होता है / वह कारणोंसे उत्पन्न होता है। कार्यका उत्पत्तिके पहले न होगा ही प्रागभाव कहलाता है। यह अभाव भावान्तररूप होता है। यह तो ध्रुवसत्य है कि किसी भी द्रव्यकी उत्पत्ति नहीं होती / द्रव्य तो विश्वमें अनादि-अनन्त गिने-गिनाये हैं। उनकी संख्या न तो कम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org