________________ स्याद्वाद 365 समानाधिकारी भाइयोंके सद्भावको ही उखाड़ कर फेंकनेका दुष्प्रयास करो। वास्तविक बात तो यह है यदि परकी अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो; तो जिस घड़ेमें तुम रहते हो वह घड़ा 'घड़ा' ही न रह जायगा, किन्तु कपड़ा आदि परपदार्थरूप हो जायगा। अतः तुम्हें अपनी स्थितिके लिये भी यह आवश्यक है कि तुम अन्य धर्मोंकी वास्तविक स्थितिको समझो। तुम उनकी हिंसा न कर सको, इसके लिये अहिंसाका प्रतीक 'स्यात्' शब्द तुमसे पहले हो वाक्यमें लगा दिया जाता है / भाई अस्ति, यह तुम्हारा दोष नहीं है। तुम तो बराबर अपने नास्ति आदि भाइयोंके साथ हिलमिल कर अनन्तधर्मा वस्तुमें रहते ही हो, सब धर्म-भाई अपनेअपने स्वरूपको सापेक्षभावसे वस्तुमें रखे हो, पर इन फूट डालनेवाले वस्तुद्रष्टाओंको क्या कहा जाय ? ये अपनी एकांगी दृष्टिसे तुममें फूट डालना चाहते हैं और चाहते हैं कि तुममें भी अहंकारपूर्ण स्थिति उत्पन्न होकर आपसमें भेदभाव एवं हिंसाकी सृष्टि हो।' बस, 'स्यात्' शब्द एक ऐसी अजनशलाका है जो उनकी दृष्टिको विकृत नहीं होने देती, वह उसे निर्मल और पूर्णदर्शी बनाती है / इस अविवक्षितसंरक्षक, दृष्टिविषापहारी, सचेतक प्रहरी, अहिंसा और सत्यके प्रतीक, जीवन्त न्यायरूप, शब्दको सुधामय करनेवाले तथा सुनिश्चित अपेक्षाद्योतक 'स्यात्' शब्दके स्वरूपके साथ हमारे दार्शनिकोंने न्याय तो किया ही नहीं, किन्तु उसके स्वरूपका 'शायद, सम्भव और कदाचित्' जैसे भ्रष्ट पर्यायोंसे विकृत करनेका अशोभन प्रयत्न अवश्य किया है, और आजतक किया जा रहा है। विरोध-परिहार: __ सबसे थोथा तर्क तो यह दिया जाता है कि 'घड़ा जब अस्ति है, तो नास्ति कैसे हो सकता है ? घड़ा जब एक है तो अनेक कैसे हो सकता है ? यह तो प्रत्यक्ष-विरोध है।' पर विचार तो करो-घड़ा आखिर 'घड़ा' ही तो है, कपड़ा तो नहीं है, कुरसी तो नहीं है, टेबिल तो नहीं है। तात्पर्य यह कि वह घटगे भिन्न अनन्त पदार्थोंरूप नहीं है। तो यह कहने में आपको क्यों संकोच होता है कि 'घड़ा अपने स्वरूपसे अस्ति है और स्वभिन्न पररूपोंसे नास्ति है।' इस घड़ेमें अनन्त पररूपकी अपेक्षा 'नास्तित्व' है, अन्यथा दुनियामें कोई शक्ति ऐसी नहीं; जो घड़ेको कपड़ा आदि बननेसे रोक सकती। यह नास्तित्व धर्म ही घड़ेको घड़ेके रूपमें कायम रखता है। इसी नास्ति धर्मकी सूचना 'अस्ति'के प्रयोग कालमें 'स्यात्' शब्द देता है। इसी तरह ‘घड़ा समग्र भावसे एक होकर भी अपने रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, छोटा, बड़ा, हलका, भारी आदि अनन्त गुण, और धर्मोंकी दृष्टिसे अनेक रूपोंमें दिखाई देता है या नहीं ?' यह आप स्वयं बतावें / यदि अनेक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org