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________________ 364 जैनदर्शन बन जायगा। इस तरह समस्त शब्द गौण-मुख्यभावसे अनेकान्त अर्थके प्रतिपादक हैं। इसी सत्यका उद्घाटन ‘स्यात्' शब्द सदा करता रहता है / मैंने पहले बताया है, कि 'स्यात्' शब्द एक सजग प्रहरी है। जो उच्चरित धर्मको इधर-उधर नहीं जाने देता। वह अविवक्षित धर्मोंके अधिकारका संरक्षक है। इसलिए जो लोग स्यात्का रूपवान्के साथ अन्वय करके और उसका 'शायद, संभावना और कदाचित्' अर्थ करके घड़ेमें रूपकी स्थितिको भी संदिग्ध बनाना चाहते हैं वे वस्तुतः प्रगाढ़ भ्रममें हैं / इसी तरह 'स्यादस्ति घट:' वाक्यमें 'अस्ति' यह अस्तित्व अंश घटमें सुनिश्चित रूपसे विद्यमान है / 'स्यात्' शब्द उस अस्तित्वकी स्थिति कमजोर नहीं बनाता। किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थितिकी सूचना देकर अन्य नास्ति आदि धर्मों के गौण सद्भावका प्रतिनिधित्व करता है। उसे डर है कि कहीं अस्ति नामका धर्म, जिसे शब्दसे उच्चारित होनेके कारण प्रमुखता मिली है, पूरी वस्तुको ही न हड़प जाय और अपने अन्य नास्ति आदि सहयोगियोंके स्थानको समाप्त न कर दे। इसलिए यह प्रतिवाक्यमें चेतावनी देता रहता है कि 'हे भाई अस्ति, तुम वस्तुके एक अंश हो, तुम अपने अन्य नास्ति आदि भाइयों के हकको हड़पनेकी कुचेष्टा नहीं करना।' इस भयका कारण है कि प्राचीन कालसे 'नित्य ही है', 'अनित्य ही है' आदि हड़पू प्रकृतिके अंशवाक्योंने वस्तुपर पूर्ण अधिकार जमाकर अनधिकार चेष्टा की है और जगत्में अनेक तरहसे वितण्डा और संघर्ष उत्पन्न किये हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थके साथ तो अन्याय हुआ ही है, पर इस वाद-प्रतिवादने अनेक कुमतवादोंकी सृष्टि करके अहंकार, हिंसा, संघर्ष, अनुदारता, असहिष्णुता आदिसे विश्वको अशान्त और संघर्षपूर्ण हिंसाज्वालामें पटक दिया है। 'स्यात्' शब्द वाक्यके उस जहरको निकाल देता है, जिससे अहंकारका सृजन होता है। ___ 'स्यात्' शब्द एक ओर एक निश्चित अपेक्षासे जहाँ अस्तित्व धर्मकी स्थिति सुदृढ़ और सहेतुक बताना है वहाँ वह उसकी उस सर्वहरा प्रवृत्तिको भी नष्ट करता है, जिससे वह पूरी वस्तुका मालिक बनना चाहता है। वह न्यायाधीशकी तरह तुरन्त कह देता है कि 'हे अस्ति, तुम अपनी अधिकार-सीमा को समझो। स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी दृष्टिसे जिस प्रकार तुम घटमें रहते हो, उसी तरह परद्रव्यादिकी अपेक्षा 'नास्ति' नामका तुम्हारा सगा भाई भी उसी घटमें रहता है। घटका परिवार बहुत बड़ा है। अभी तुम्हारा नाम लेकर पुकारा गया है, इसका इतना ही अर्थ है कि इस समय तुमसे कार्य है, तुम्हारा प्रयोजन है, तुम्हारी मुख्यता, तुम्हारी विवक्षा है, पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि 'तुम अपने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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