________________ स्याद्वाद 363 ही है' यह अवधारण करके घड़ेमें रहनेवाले रस, गन्ध आदिका प्रतिषेध नहीं कर सकता / वह अपने स्वार्थको मुख्य रूपसे कहे, यहाँ तक कोई हानि नहीं, पर यदि वह इससे आगे बढ़कर 'अपने ही स्वार्थ'को सब कुछ मानकर शेषका निषेध करता है, तो उसका ऐसा करना अन्याय है और वस्तुस्थितिका विपर्यास करना है / 'स्यात्' शब्द इसी अन्यायको रोकता है और न्याय्य वचनपद्धतिकी सूचना देता है। वह प्रत्येक वाक्यके साथ अन्तर्गर्भ रहता है और गुप्त रहकर भी प्रत्येक वाक्यको मुख्य-गौणभावसे अनेकान्त अर्थका प्रतिपादक बनाता है। ____ 'स्यात्' निपात है। निपात द्योतक भी होते हैं और वाचक भी। यद्यपि 'स्यात्' शब्द अनेकान्त-सामान्यका वाचक होता है फिर भी ‘अस्ति' आदि विशेष धर्मोंका प्रतिपादन करनेके लिए 'अस्ति' आदि तत्तत् धर्मवाचक शब्दोंका प्रयोग करना ही पड़ता है। तात्पर्य यह कि 'स्यात् अस्ति' वाक्यमें 'अस्ति' पद अस्तित्व धर्मका वाचक है और 'स्यात्' शब्द 'अनेकान्त' का। वह उस समय अस्तिसे भिन्न अन्य शेष धर्मोंका प्रतिनिधित्व करता है। जब ‘स्यात्' अनेकान्तका द्योतन करता है तब 'अस्ति' आदि पदोंके प्रयोगसे जिन अस्तित्व आदि धर्मोंका प्रतिपादन किया जा रहा है वह 'अनेकान्त रूप है' यह द्योतन 'स्यात्' शब्द करता है। यदि यह पद न हो, तो 'सर्वथा अस्तित्व' रूप एकान्तकी शंका हो जाती है। यद्यपि स्यात् और कथंचित्का अनेकात्मक अर्थ इन शब्दोंके प्रयोग न करनेपर भी कुशल वक्ता समझ लेता है, परन्तु वक्ताको यदि अनेकान्त वस्तुका दर्शन नहीं है, तो वह एकान्तमें भटक सकता है / अतः उसे वस्तुतत्त्वपर आनेके लिए आलोकस्तम्भके समान इस 'स्यात्' ज्योतिकी नितान्त आवश्यकता है। स्याद्वाद विशिष्ट भाषापद्धति : स्याद्वाद सुनयका निरूपण करनेवाली विशिष्ट भाषापद्धति है। 'स्यात्' शब्द यह निश्चितरूपसे बताता है कि 'वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है। उसमें इसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म समान हैं' उसमें अविवक्षित गुणधर्मोके अस्तित्वकी रक्षा 'स्यात्' शब्द करता है / 'रूपवान् घटः' में 'स्यात्' शब्द 'रूपवान्' के साथ नहीं जुटता; क्योंकि रूपके अस्तित्वकी सूचना तो 'रूपवान्' शब्द स्वयं ही दे रहा है, किन्तु अन्य अविवक्षित शेष धर्मों के साथ उसका अन्वय है। वह 'रूपवान्' को पूरे घड़ेपर अधिकार जमानेसे रोकता है और साफ कह देता है कि 'घड़ा बहुत बड़ा है, उसमें अनन्तधर्म हैं। रूप भी उसमेंसे एक है।' यद्यपि रूपकी विवक्षा होनेसे अभी रूप हमारी दृष्टिमें मुख्य है और वही शब्दके द्वारा वाच्य बन रहा है, पर रसकी विवक्षा होनेपर वह गौणराशिमें शामिल हो जायगा और रस प्रधान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org