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________________ जैनदर्शनं प्रतिपादन करता हैं तो 'स्यात्' शब्द उसमें रहने वाले नास्तित्व आदि शेष अनन्तधर्मोका सद्भाव बताता है कि 'वस्तु अस्ति मात्र ही नहीं है, उसमें गौणरूपसे नास्तित्व आदि धर्म भी विद्यमान हैं / ' मनुष्य अहंकारका पुतला है। अहंकारकी सहस्र नहीं, असंख्य जिह्वाएँ है। यह विषधर थोड़ी भी असावधानी होनेपर डस लेता है। अतः जिस प्रकार दृष्टिमें अहंकारका विष न आने देनेके लिए अनेकान्तदृष्टि' संजीवनीका रहना आवश्यक है उसी तरह भाषामें अवधारण या अहंकारका विष निर्मूल करनेके लिए 'स्याद्वाद' अमृत अपेक्षणीय होता है / अनेकान्तवाद स्याद्वादका इस अर्थमें पर्यायवाची है कि ऐसा वाद-कथन अनेकान्तवाद कहलाता है जिसमें वस्तु के अनन्तधर्मात्मक स्वरूपका प्रतिपादन मुख्य-गौणभावसे होता है। यद्यपि ये दोनों पर्यायवाची हैं फिर भी 'स्याद्वाद' ही निर्दुष्ट भाषाशैलीका प्रतीक बन गया है। अनेकान्तदृष्टि तो ज्ञानरूप है, अतः वचनरूप 'स्याद्वाद' से उसका भेद स्पष्ट है। इस अनेकान्तवादके बिना लोकव्यवहार नहीं चल सकता। पग-पगपर इसके बिना विसंवादको सम्भावना है / अतः इस त्रिभुवनके एक गुरु अनेकान्तवादको नमस्कार करते हुए आचार्य सिद्धसेनने ठीक ही लिखा है "जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वथा ण णिव्वइए। तस्स भुवणेकगुरुणो णमोऽणेगंतवायस्स // " . -सन्मति० 3 / 68 / स्याद्वादको व्युत्पत्ति: 'स्याद्वाद' स्यात् और वाद इन दो पदोंसे बना है। वादका अर्थ है कथन या प्रतिपादन / 'स्यात्' विधिलिङमें बना हुआ तिङन्तप्रतिरूपक निपात है। वह अपनेमें एक महान् उद्देश्य और वाचक शक्तिको छिपाये हुए है। स्यात्के विधिलिङ्में विधि, विचार आदि अनेक अर्थ होते हैं। उसमें 'अनेकान्त' अर्थ यहाँ विवक्षित है। हिन्दीमें यह 'शायद' अर्थमें प्रचलित-सा हो गया है, परन्तु हमें उसकी उस निर्दोष परम्पराका अनुगमन करना चाहिये जिसके कारण यह शब्द 'सत्यलांछन' अर्थात् सत्यका चिह्न या प्रतीक बना है। 'स्यात्' शब्द 'कथञ्चित्' के अर्थमें विशेषरूपसे उपयुक्त बैठता है / 'कथञ्चित्' अर्थात् 'अमुक निश्चित अपेक्षासे' वस्तु अमुक धर्मवाली है / न तो यह 'शायद', न 'संभावना' और न 'कदाचित्'का प्रतिपादक है, किन्तु 'सुनिश्चित दृष्टिकोण'का वाचक है। शब्दका स्वभाव है कि. वह अवधारणात्मक होता है, इसलिये अन्यके प्रतिषेध करनेमें वह निरंकुश रहता है। इस अन्यके प्रतिषेध पर अंकुश लगानेका कार्य 'स्यात्' करता है। वह कहता. है कि 'रूपवान् घटः' वाक्य घड़ेके रूपका प्रतिपादन भले ही करे, पर वह 'रूपवान् . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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