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________________ 368 जैनदर्शन अनन्त है। जो पर्याय गयी वह अनन्तकालके लिये गयी, वह फिर वापिस नहीं आ सकती / 'यदतीतमतीतमेव तत्' यह ध्र व नियम है। यदि प्रध्वंसाभाव नहीं माना जाता है तो कोई भी पर्याय नष्ट नहीं होगी, सभी पर्याय अनन्त हो जायगी, अतः प्रध्वंसाभाव प्रतिनियत पदार्थ-व्यवस्थाके लिये नितान्त आवश्यक है। इतरेतराभाव : एक पर्यायका दूसरी पर्यायमें जो अभाव है बह इतरेतराभाव है। स्वभावान्तरसे स्वस्वभावकी व्यावृत्तिको इतरेतराभाव कहते हैं। प्रत्येक पदार्थके अपनेअपने स्वभाव निश्चित हैं / एक स्वभाव दूसरे रूप नहीं होता। यह जो स्वभावोंकी प्रतिनियतता है वही इतरेतराभाव है। इसमें एक द्रव्यको पर्यायोंका परस्परमें जो अभाव है वही इतरेतराभाव फलित होता है, जैसे घटका पटमें और पटका घटमें वर्तमानकालिक अभाव / कालान्तरमें घटके परमाणु मिट्टी; कपास और तन्तु बनकर पटपर्यायको धारण कर सकते हैं, पर वर्तमानमें तो घट पट नहीं हो सकता है। यह जो वर्तमानकालीन परस्पर व्यावृत्ति है वह अन्योन्याभाव है। प्रागभाव और प्रध्वंसाभावसे अन्योन्याभावका कार्य नहीं चलाया जा सकता; क्योंकि जिसके अभावमें नियमसे कार्यकी उत्पत्ति हो वह प्रागभाव और जिसके होने पर नियमसे कार्यका विनाश हो वह प्रध्वंसाभाव कहलाता है, पर इतरेतराभावके अभाव या भावसे कार्योत्पत्ति या विनाशका कोई सम्बन्ध नहीं है। वह तो वर्तमान पर्यायोंके प्रतिनियत स्वरूपकी व्यवस्था करता है कि वे एक दूसरे रूप नहीं हैं। यदि यह इतरेतराभाव महीं माना जाता; तो कोई भी प्रतिनियत पर्याय सर्वात्मक हो जायगी, यानी सब सर्वात्मक हो जायेंगे / अत्यन्ताभाव एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें जो त्रैकालिक अभाव है वह अत्यन्ताभाव है। ज्ञानका आत्मामें समवाय है, उसका समवाय कभी भी पुद्गलमें नहीं हो सकता, यह अत्यन्ताभाव कहलाता है। इतरेतराभाव वर्तमानकालीन होता है और एक स्वभावकी दूसरेसे व्यावृत्ति कराना ही उसका लक्ष्य होता है। यदि अत्यन्ताभावका लोप कर दिया जाये तो किसी भी द्रव्यका कोई असाधारण स्वरूप नहीं रह जायगा। सब द्रव्य सब रूप हो जायेंगे। अत्यन्ताभावके कारण ही एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो पाता। द्रव्य चाहे सजातीय हों, या विजातीय, उनका अपना प्रतिनियत अखंड स्वरूप होता है। एक द्रव्य दूसरे में कभी भी ऐसा विलीन नहीं होता, जिससे उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाय / इस तरह ये चार अभाव, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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