________________ नय-विचार उसी तरह अलिस रहना है, उनसे ऊपर उठना है, जिस तरह कि वह स्त्री, पुत्रादि परचेतन तथा धन-धान्यादि पर अचेतन पदार्थोंसे नाता तोड़कर स्वावलम्बी मार्ग पकड़ता है। यद्यपि यह साधककी भावना मात्र है, पर इसे आ० कुन्दकुन्दने दार्शनिक आधार पकड़ाया है। वे उस लोकव्यवहारको हेय मानते हैं, जिसमें अंशतः भी परावलम्बन हो। किन्तु यह ध्यानमें रखनेकी बात है कि ये सत्यस्थितिका अपलाप नहीं करना चाहते। वे लिखते हैं कि 'जीवके परिणामोंको निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य कर्मपर्यायको प्राप्त होते हैं और उन कर्मोंके निमित्तसे जोवमें रागादि परिणाम होते हैं, यद्यपि दोनों अपने-अपने परिणामोंमें उपादान होते हैं, पर वे परिणमन परस्परहेतुक-अन्योन्यनिमित्तक है।' उन्होंने “अण्णोप्णणिमित्तेण" पदसे इसी भावका समर्थन किया है। यानी कार्य उपादान और निमित्त दोनों सामग्रीसे होता है। इस तथ्यका वे अपलाप नहीं करके उसका विवेचन करते हैं और जगत्के उस अहंकारमूलक नैमित्तिक कर्तृत्वका खरा विश्लेषण करके कहते हैं कि बताओ 'कुम्हारने घड़ा बनाया' इसमें कुम्हारने आखिर क्या किया ? यह सही है कि कुम्हारको घड़ा बनानेकी इच्छा हुई, उसने उपयोग लगाया और योग- अर्थात् हाथ-पैर हिलाये, किन्तु 'घट' पर्याय तो आखिर मिट्टीमें ही उत्पन्न हई। यदि कुम्हारकी इच्छा, ज्ञान और प्रयत्न ही घटके अन्तिम उत्पादक होते तो उनसे रेत या पत्थरमें भी घड़ा उत्पन्न हो जाना चाहिये था / आखिर वह मिट्टीकी उपादानयोग्यतापर ही निर्भर करता है, वही योग्यता घटाकार बन जाती है। यह ठीक है कि कुम्हारके ज्ञान, इच्छा, और प्रयत्नके निमित्त बने बिना मिट्टीकी योग्यता विकसित नहीं हो सकती थी, पर इतने निमित्तमात्रसे हम उपादानकी निजयोग्यताकी विभूतिकी उपेक्षा नहीं कर सकते / इस निमित्तका अहंकार तो देखिए कि जिसमें रंचमात्र भी इसका अंश नहीं जाता, अर्थात् न तो कुम्हारका ज्ञान मिट्टी में धंसता है, न इच्छा और न प्रयत्न, फिर भी वह 'कुम्भकार' कहलाता है ! कुम्भके रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि मिट्टीसे ही उत्पन्न होते हैं, उसका एक भी गुण 1. 'जीववरिणामहेदं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। घुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवोवि परिणमइ // 8 // ण वि कुवइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे / अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्हं पि // 81 // ' -समयसार। 2. 'जीवो ण करेदि घडं व पडं णेव सेसगे दवे / जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ॥१०॥'-समयसार / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org