________________ 352 जैनदर्शन और व्यवहार इन दो प्रकारोंको अपनाया है / अन्तर इतना है कि जैन अध्यात्मका निश्चयनय वास्तविक स्थितिको उपादानके आधारसे पकड़ता है; वह अन्य पदार्थोंके अस्तित्वका निषेध नहीं करता; जब कि वेदान्त या विज्ञानद्वैतका परमार्थ अन्य पदार्थोंके अस्तित्वको ही समाप्त कर देता है / बुद्धकी धर्मदेशनाको परमार्थसत्य और लोकसंवृतिसत्य इन दो रूपसे' घटानेका भी प्रयत्न हुआ है। निश्चयनय परनिरपेक्ष स्वभावका वर्णन करता है। जिन पर्यायोंमें 'पर' निमित्त पड़ जाता है उन्हें वह शुद्ध स्वकीय नहीं कहता। परजन्य पर्यायोंको 'पर' मानता है। जैसे-जीवके रागादि भावोंमें यद्यपि आत्मा स्वयं उपादान होता है, वही रागरूपसे परिणति करता है, परन्तु चूंकि ये भाव कर्मनिमित्तक हैं, अतः इन्हें वह अपने आत्माके निजरूप नहीं मानता। अन्य आत्माओं और जगत्के समस्त अजीवोंको तो वह अपना मान ही नहीं सकता, किन्तु जिन आत्मविकासके स्थानोंमें परका थोड़ा भी निमित्तत्व होता है उन्हें वह 'पर'के खातेमें ही खतया देता है / इसीलिये समयसारमें जब आत्माके वर्ण, रस, स्पर्श आदि प्रसिद्ध पररूपोंका निषेध किया है तो उसी झोंकमें गुणस्थान आदि परनिमित्तक स्वधर्मोंका भी निषेध कर दिया गया हैं 12 दूसरे शब्दोंमें निश्चयनय अपने मूल लक्ष्य या आदर्शका खालिस वर्णन करना चाहता है, जिससे साधकको भ्रम न हो और वह भटक न जाय / इसलिये आत्माका नैश्चयिक वर्णन करते समय शुद्ध ज्ञायक रूप ही आत्माका स्वरूप प्रकाशित किया गया है। बन्ध और रागादिको भी उसी एक 'पर' कोटिमें डाल दिया है जिसमें पुद्गल आदि प्रकट परपदार्थ पड़े हुए हैं / व्यवहारनय परसाक्षेप पर्यायोंको ग्रहण करनेवाला होता है। परद्रव्य तो स्वतन्त्र हैं, अतः उन्हें तो अपना कहनेका प्रश्न ही नहीं उठता। अध्यात्मशास्त्रका उद्देश्य है कि वह साधकको यह स्पष्ट बता दे कि तुम्हारा गन्तव्य स्थान क्या है ? तुम्हारा परम ध्येय और चरम लक्ष्य क्या हो सकता है ? बीचके पड़ाव तुम्हारे साध्य नहीं हैं / तुम्हें तो उनसे बहुत ऊँचे उठकर परम स्वावलम्बी बनना है। लक्ष्यका दो टूक वर्णन किये बिना मोही जीव भटक ही जाता है। साधकको उन स्वोपादानक, किन्तु परनिमित्तक विभूति या विकारोंसे 1. 'द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना / लोकसंवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः // ' माध्यमिककारिका, आर्यसत्यपरीक्षा, श्लो० 8 / 2. 'णेव य जीवट्टाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स। जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स पज्जाया // 55 / -समयसार / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org