________________ नय-विचार अर्थनय, शब्दनय : ___ इन सात नयोंमें ऋजुसूत्र पर्यन्त चार नय अर्थवाही होनेसे अर्थनय' है। यद्यपि नैगमनय संकल्पनाही होनेसे अर्थकी सीमासे बाहिर हो जाता था, पर नैगमका विषय भेद और अभेद दोनोंको ही मानकर उसे अर्थग्राही कहा गया है। शब्द आदि तीन नय पदविद्या अर्थात् व्याकरणशास्त्र-शब्दशास्त्रकी सीमा और भूमिकाका वर्णन करते हैं, अतः ये शब्दनय हैं। द्रव्याथिक-पर्यायाथिकविभाग : नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक नय हैं और ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायाथिक हैं / प्रथमके तीन नयोंकी द्रव्यपर दृष्टि रहती है, जब कि शेष चार नयोंका वर्तमानकालीन पर्यायपर ही विचार चालू होता है / यद्यपि व्यवहारनयमें भेद प्रधान है और भेदको भी कहीं-कहीं पर्याय कहा है, परन्तु व्यवहारनय एकद्रव्यगत ऊर्ध्वतासामान्यमें कालिक पर्यायोंका अन्तिम भेद नहीं करता, उसका क्षेत्र अनेकद्रव्यमें भेद करनेका मुख्यरूपसे है। वह एकद्रव्यकी पर्यायोंमें भेद करके भी अन्तिम एकक्षणवर्ती पर्याय तक नहीं पहुँच पाता, अतः इसे शुद्ध पर्यायार्थिकमें शामिल नहीं किया है / जैसे कि नैगमनय कभी पर्यायको और कभी द्रव्यको विषय करनेके कारण उभयावलम्बी होनेमें द्रव्यार्थिकमें ही अन्तर्भूत है उसी तरह व्यवहारनय भी भेदप्रधान होकर भी द्रव्यको विषय करता है, अतः वह भी द्रव्याथिककी ही सीमामें है। ऋजुसूत्रादि चार नय तो स्पष्ट ही एकसमयवर्ती पर्यायको सामने रखकर विचार चलाते हैं, अतः पर्यायार्थिक हैं / आ० जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ऋजुसूत्रको भी द्रव्यार्थिक मानते हैं / निश्चय और व्यवहार : अध्यात्मशास्त्रमें नयोंके निश्चय और व्यवहार ये दो भेद प्रसिद्ध हैं। निश्चयनयको भूतार्थ और व्यवहारनयको अभूतार्थ भी वहीं बताया है। जिस प्रकार अद्वैतवादमें पारमार्थिक और ब्यावहारिक दो रूपमें और शून्यवाद या विज्ञानवादमें परमार्थ और सांवृत दो रूपमें या उपनिषदोंमें सूक्ष्म और स्थूल दो रूपोंमें तत्त्वके वर्णनकी पद्धति देखी जाती है उसी तरह जैन अध्यात्ममें भी निश्चय 1. 'चत्वारोऽर्थाश्रयाः शेषास्त्रयं शब्दतः / -सिद्धिवि० / लघी० श्लो० 72 / 2. विशेषा० गा० 75,77,2262 / 3. समयसार गा० 11 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org