________________ 354 जैनदर्शन कुम्हारने उपजाया नहीं है / कुम्हारका एक भी गुण मिट्टीमें पहुँचा नहीं है, फिर भी वह सर्वाधिकारी बनकर 'कुम्भकार' होनेका दुरभिमान करता है ! - राग, द्वेष आदिकी स्थिति यद्यपि विभिन्न प्रकारकी है; क्योंकि इसमें आत्मा स्वयं राग और द्वेष आदि पर्यायों रूपसे परिणत होता है, फिर भी यहाँ वे विश्लेषण करते हैं कि बताओ तो सही-क्या शुद्ध आत्मा इनमें उपादान बनता है ? यदि सिद्ध और शुद्ध आत्मा रागादिमें उपादान बनने लगे; तो मुक्तिका क्या स्वरूप रह जाता है ? अतः इनमें उपादान रागादिपर्यायसे विशिष्ट आत्मा ही बनता है, दूसरे शब्दोंमें रागादिसे ही रागादि होते हैं। निश्चयनय जीव और कर्मके - अनादि बन्धनसे इनकार नहीं करता। पर उस बंधनका विश्लेषण करता है कि जब दो स्वतंत्र द्रव्य हैं तो इनका संयोग ही तो हो सकता है, तादात्म्य नहीं। केवल संयोग तो अनेक द्रव्योंसे इस आत्माका सदा ही रहनेवाला है, केवल वह हानिकारक नहीं होता। धर्म, अधर्म, आकाश और काल तथा अन्य अनेक आत्माओंसे इसका सम्बन्ध बराबर मौजूद है, पर उससे इसके स्वरूप में कोई विकार नहीं होता। सिद्धिशिलापर विद्यमान सिद्धात्माओंके साथ वहाँके पुद्गल परमाणओंका संयोग है ही, पर इतने मात्रसे उनमें बन्धन नहीं कहा जा सकता और न उस संयोगसे सिद्धोंमें रागादि ही उत्पन्न होते हैं / अतः यह स्पष्ट है कि शुद्ध आत्मा परसंयोगरूप निमित्तके रहनेपर भी रागादिमें उपादान नहीं होता और न पर निमित्त उसमें बलात् रागादि उत्पन्न ही कर सकते हैं। हमें सोचना ऊपरकी तरफसे है कि जो हमारा वास्तविक स्वरूप बन सकता है, जो हम हो सकते हैं, वह स्वरूप क्या रागादिमें उपादान होता है ? नीचेकी ओरसे नहीं सोचना है; क्योंकि अनादिकालसे तो अशुद्ध आत्मा रागादिमें उपादान बन ही रहा है और उसमें रागादिकी परम्परा बराबर चालू है। . अतः निश्चयनयको यह कहनेके स्थानमें कि 'मैं शुद्ध हूँ, अबद्ध हूँ, अस्पृष्ट हैं; यह कहना चाहिये कि 'मैं शुद्ध, अबद्ध और अस्पृष्ट हो सकता हूँ।' क्योंकि आज तक तो उसने आत्माकी इस शुद्ध आदर्श दशाका अनुभव किया ही नहीं है। बल्कि अनादिकालसे रागादिपंकमें ही वह लिप्त रहा है। यह निश्चित तो इस आधारपर किया जा रहा है कि जब दो स्वतन्त्र द्रव्य हैं, तब उनका संयोग भले ही अनादि हो, पर वह टूट सकता है, और वह टूटेगा तो अपने परमार्थ स्वरूपकी प्राप्तिकी ओर लक्ष्य करनेसे। इस शक्तिका निश्चय भी द्रव्यका स्वतन्त्र अस्तित्व मानकर ही तो किया जा सकता है। अनादि अशुद्ध आत्मामें शुद्ध होनेकी शक्ति है, वह शुद्ध हो सकता है। यह शक्यता-भविष्यत्का ही तो विचार है। हमारा भूत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org