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________________ प्रमाणमीमांसा 327 चलने में कोई हानि नहीं है। क्योंकि असत्योपाधिसे भी सत्य तक पहुँचा जाता है, पर दार्शनिकक्षेत्र तो वस्तुस्वरूपकी यथार्थ मीमांसा करना चाहता है। अतः वहाँ भावनाओंका कार्य नहीं है। प्रतीतिसिद्ध स्थिर और स्थूल पदार्थोंको भावनावश असत्यताका फतवा नहीं दिया जा सकता। जिस क्रम और योगपद्यसे अर्थक्रियाकी व्याप्ति है वे सर्वथा क्षणिक पदार्थमें भी नहीं बन सकते। यदि पूर्वका उत्तरके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, तो उनमें कार्यकारणभाव ही नहीं बन सकता। अव्यभिचारी कार्यकारणभाव या उपादानोपादेयभावके लिये पूर्व और उत्तर क्षणमें कोई वास्तविक सम्बन्ध या अन्वय मानना ही होगा, अन्यथा सन्तानान्तरवर्ती उत्तरक्षणके साथ भी उपादानोपादेशभाव बन जाना चाहिये / एक वस्तु अब क्रमशः दो क्षणोंको या दो देशोंको प्राप्त होती है तो उसमें कालकृत या देशकृत क्रम माना जा सकता है, किन्तु जो जहाँ और जब उत्पन्न हो तथा वहीं और तभी नष्ट हो जाय; तो उसमें क्रम कैसा ? क्रमके अभावमें योगपद्यकी चर्चा ही व्यर्थ है / जगत्के पदार्थोंके विनाशको निर्हेतुक मानकर उसे स्वभावसिद्ध कहना उचित नहीं है, क्योंकि जिस प्रकर उत्तरका उत्पाद अपने कारणोंसे होता है उसी तरह पूर्वका विनाश भी उन्हीं कारणोंसे होता है। उनमें कारणभेद नहीं है, इसलिये वस्तुतः स्वरूपभेद भी नहीं है / पूर्वका विनाश और उत्तरका उत्पाद दोनों एक ही वस्तु हैं / कार्यका उत्पाद ही कारणका विनाश है / जो स्वभावभूत उत्पाद और विनाश हैं वे तो स्वरसतः होते ही रहते हैं। रह जाती है स्थूल विनाशकी बात, सो वह स्पष्ट ही कारणोंकी अपेक्षा रखता है। जब वस्तुमें उत्पाद और विनाश दोनों ही समान कोटिके धर्म हैं तब उनमेंसे एकको सहेतुक तथा दूसरेको अहेतुक कहना किसी भी तरह उचित नहीं है। संसारके समस्त ही जड़ और चेतन पदार्थोंमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों प्रकारके सम्बन्ध बराबर अनुभवमें आते हैं। इनमें क्षेत्र, काल और भाव प्रत्यासत्तियाँ व्यवहारके निर्वाहके लिये भी हों पर उपादानोपादेयभावको स्थापित करनेके लिये द्रव्यप्रत्यासत्ति परमार्थ ही मानना होगी। और यह एकद्रव्यतादात्म्यको छोड़कर अन्य नहीं हो सकती। इस एकद्रव्यतादात्म्यके बिना बन्ध-मोक्ष, लेन-देन, गुरु-शिष्यादि समस्त व्यवहार समाप्त हो जाते हैं। 'प्रतीत्य समुत्पाद' स्वयं, जिसको प्रतीत्य जो समुत्पादको प्राप्त करता है उनमें परस्पर सम्बन्धकी सिद्धि कर देता है। यहाँ केवल क्रिया मात्र ही नहीं है, किन्तु क्रियाका आधार कर्त्ता भी है। जो प्रतीत्य--अपेक्षा करता है, वही उत्पन्न होता है। अतः इस एक द्रव्यप्रत्यासत्तिको हर हालतमें स्वीकार करना ही होगा। अव्यभिचारी कार्यकारणभावके आधारसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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