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________________ 328 जैनदर्शन पूर्व और उत्तर क्षणोंमें एक सन्तति तभी बन सकती है जब कार्य और कारणमें अव्यभिचारिताका नियामक कोई अनुस्यूत परमार्थ तत्त्व स्वीकार किया जाय / विज्ञानवादको समीक्षा : इसी तरह विज्ञानवादमें बाह्यार्थके अस्तित्वका सर्वथा लोप करके केवल उन्हें वासनाकल्पित ही कहना उचित नहीं है। यह ठीक है कि पदार्थों में अनेक प्रकारकी संज्ञाएँ और शब्दप्रयोग हमारी कल्पनासे कल्पित हों, पर जो ठोस और सत्य पदार्थ हैं उनकी सत्तासे इनकार नहीं किया जा सकता / नीलपदार्थकी सत्ता नीलविज्ञानसे सिद्ध भले हो हो, पर नीलविज्ञान नीलपदार्थकी सत्ताको उत्पन्न नहीं करता। वह स्वयं सिद्ध है, और नीलविज्ञानके न होनेपर भी उसका स्वसिद्ध अस्तित्व है हो। आँख पदार्थको देखती है, न कि पदार्थको उत्पन्न करती है। प्रमेय और प्रमाण ये संज्ञाएँ सापेक्ष हों, पर दोनों पदार्थ अपनी-अपनी सामग्रीसे स्वतःसिद्ध उत्पत्तिवाले हैं। वासना और कल्पनासे पदार्थको इष्ट-अनिष्ट रूपमें चित्रित किया जाता है, परन्तु पदार्थ उत्पन्न नहीं किया जा सकता। अतः विज्ञानवाद आजके प्रयोगसिद्ध विज्ञानसे न केवल बाधित ही है, किन्तु व्यवहारानुपयोगी भी है। शून्यवादको आलोचना : शून्यवादके दो रूप हमारे सामने हैं-एक तो स्वप्नप्रत्ययकी तरह समस्त प्रत्ययोंको निरालम्बन कहना अर्थात् प्रत्ययकी सत्ता तो स्वीकार करना, पर उन्हें निर्विषय मानना और दूसरा बाह्यार्थकी तरह ज्ञानका भी लोप करके सर्वशून्य मानना / प्रथम कल्पना एक प्रकार से निर्विषय ज्ञान माननेकी है, जो प्रतीतिविरुद्ध है; क्योंकि प्रकृत अनुमानको यदि निविषय माना जाता है, तो इससे 'निरालम्बन ज्ञानवाद' ही सिद्ध नहीं हो सकता। यदि सविषय मानते हैं; तो इसी अनुमानसे हेतु व्यभिचारी हो जाता है। अतः जिन प्रत्ययोंका बाह्यार्थ उपलब्ध होता है उन्हें सविषय और जिनका उपलब्ध नहीं होता, उन्हें निर्विषय मानना उचित है। ज्ञानोंमें सत्य और असत्य या अविसंवादी और विसंवादी व्यवस्था बाह्यार्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिसे ही तो होती है। अग्निके ज्ञानसे पानी गरम नहीं किया जा सकता। जगत्का समस्त बाह्य व्यवहार बाह्य-पदार्थोंकी वास्तविक सत्तासे ही संभव होता है। संकेतके अनुसार शब्दप्रयोगोंकी स्वतन्त्रता होनेपर भी पदार्थोंके निजसिद्ध स्वरूप या अस्तित्व किसीके संकेतसे उत्पन्न नहीं हो सकते। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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