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________________ 326 जैनदर्शन मानकर उनके स्तन आदि अवयवोंमें रागदृष्टि गड़ाता है। यदि प्राणी उन्हें केवल हड्डियोंका ढाँचा और मांसका पिंड, अन्ततः परमाणु जके रूपमें देखे, तो उसका रागभाव अवश्य कम होगा। 'स्त्री' यह संज्ञा भी स्थूलताके आधारसे कल्पित होती है। अतः वीतरागताकी साधनाके लिये जगत् और शरीरकी अनित्यताका विचार और उसकी बार-बार भावना अत्यन्त अपेक्षित है। जैन साधुओंको भी चित्तमें वैराग्यकी दृढ़ताके लिये अनित्यत्व, अशरणत्व आदि भावनाओंका उपदेश दिया गया है। परन्तु भावना जुदी वस्तु है और वस्तुतत्त्वका निरूपण जुदा / वैज्ञानिक भावनाके बलपर वस्तुस्वरूपकी मीमांसा नहीं करता, अपितु सुनिश्चित कार्यकारणभावोंके प्रयोगसे / स्त्रीका सर्पिणी, नरकका द्वार, पापकी खानि, नागिन और विषवेल आदि रूपसे जो भावनात्मक वर्णन पाया जाता है वह केवल वैराग्य जागृत करनेके लिये है, इससे स्त्री सर्पिणी या नागिन नहीं बन जाती। किसी पदार्थको नित्य माननेसे उसमें सहज राग पैदा होता है। आत्माको शाश्वत माननेसे मनुष्य उसके चिर सूखके लिये न्याय और अन्यायसे जैसे-बने-तैसे परिग्रहका संग्रह करने लगता है / अतः बुद्धने इस तृष्णामूलक परिग्रहसे विरक्ति लानेके लिये शाश्वत आत्माका ही निषेध करके नैरात्म्यका उपदेश दिया / उन्हें बड़ा डर था कि जिस प्रकार नित्य आत्माके मोहमें पगे अन्य तीथिक तृष्णामें आकंठ डूबे हुए हैं उस तरहके बुद्धके भिक्षु न हों और इसीलिये उन्होंने बड़ी कठोरतासे आत्माकी शाश्वतिकता ही नहीं; आत्माका ही निषेध कर दिया / जगत्को क्षणिक, शून्य, निरात्मक, अशुचि और दुःखरूप कहना भी मात्र भावनाएँ हैं। किन्तु आगे जाकर इन्हीं भावनाओंने दर्शनका रूप ले लिया और एक-एक शब्दको लेकर एक-एक क्षणिकवाद, शून्यवाद, नैरात्म्यवाद आदि वाद खड़े हो गये। एक बार इन्हे दार्शनिक रूप मिल जानेपर तो उनका बड़े उग्ररूपमें समर्थन हुआ। बुद्धने योगिज्ञानकी उत्पत्ति चार आर्यसत्योंकी भावनाके' प्रकर्ष पर्यन्त गमनसे ही तो मानी है / उसमें दृष्टान्त भी दिया है२ कामुकका / जैसे कोई कामुक अपनी प्रिय कामिनीकी तीव्रतम भावनाके द्वारा उसका सामने उपस्थितकी तरह साक्षात्कार कर लेता है, उसी तरह भावनासे सत्यका साक्षात्कार भी हो जाता है। अतः जहाँ तक वैराग्यका सम्बन्ध है वहाँ तक जगत्को क्षणिक और परमाणुपुंजरूप मानकर 1. 'भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानम् / ' न्यायवि० 1 / 11 / 2. 'कामशोकमयोन्मादचौरस्वप्नाद्य पप्लुताः। अभूतानपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ॥'-प्रमाणवा० 2 / 282 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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