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________________ प्रमाणमीमांसा 325 अवस्था धारण नहीं करते तथा अतीन्द्रिय सूक्ष्म परमाणुओंका पुंज भी अतीन्द्रिय ही बना रहता है; तो वह घट, पट आदि रूपसे इन्द्रियग्राह्य नहीं हो सकेगा। परमाणुओंमें परस्पर विशिष्ट रासायनिक सम्बन्ध होनेपर ही उनमें स्थूलता आती है, और तभी वे इन्द्रियग्राह्य होते हैं / परमाणुओंका परस्पर जो सम्बन्ध होता है वह स्निग्धता और रूक्षताके कारण गुणात्मक परिवर्तनके रूपमें होता है। वह कथञ्चित्तादात्म्यरूप है, उसमें एकदेशादि विकल्प नहीं उठ सकते / वे ही परमाणु अपनी सूक्ष्मता छोड़कर स्थूलरूपताको धारण कर लेते हैं। पुद्गलोंका यही स्वभाव है। यदि परमाणु परस्पर सर्वथा असंसृष्ट रहते हैं; तो जैसे बिखरे हुए परमाणुओंसे जलधारण नहीं किया जा सकता था वैसे पुजीभूत परमाणुओंसे भी जलधारण आदि क्रियाएँ नहीं हो सकेंगी। पदार्थ पर्यायको दृष्टिसे प्रतिक्षण विनाशी होकर भी अपनी अविच्छिन्न सन्ततिकी दृष्टि से कथञ्चित् ध्रुव भी हैं। सन्तति, पंक्ति और सेनाकी तरह बुद्धिकल्पित ही नहीं है, किन्तु वास्तविक कार्यकारणपरम्पराकी ध्रुव कोल है। इसीलिए निर्वाण अवस्थामें चित्तसन्ततिका सर्वथा उच्छेद नहीं माना जा सकता। दीपनिर्वाणका दृष्टान्त भी इसलिये उचित नहीं है कि दीपकका भी सर्वथा उच्छेद नहीं होता। जो परमाणु दीपक अवस्थामें भासुराकार और दीप्त थे वे बुझनेपर श्यामरूप और अदीप्त बन जाते हैं। यहाँ केवल पर्यायपरिवर्तन ही हुआ। किसी मौलिक तत्त्वका सर्वथा उच्छेद मानना अवैज्ञानिक है। वस्तुतः बुद्धने विषयोंसे वैराग्य और ब्रह्मचर्यकी साधनाके लिये जगत्के क्षणिकत्व और अनित्यत्वकी भावनापर इसलिये भार दिया था कि मोही और परिग्रही प्राणी पदार्थोंको स्थिर और स्थूल मानकर उनमें राग करता है, तृष्णासे उनके परिग्रहकी चेष्टा करता है, स्त्री आदिको एक स्थिर और स्थूल पदार्थ की त्रैकालिक अस्तित्वसे व्याप्ति है। जो सत् है अर्थात् वस्तु है वह तीनों कालमें अस्ति है / 'सर्व' वस्तुको तीनों कालोंमें अस्ति माननेके कारण ही उस वादका नाम सर्वास्तिवाद पड़ा है ( देखो, सिस्टम ऑफ बुद्धिस्टिक थाट पृ० 103 ) सर्वास्तिवादियोंने रूपपरमाणुको नित्य मानकर उसीमें पृथिवी, अप् , तेज, वायुरूप होनेकी शक्ति मानी है। ( वही पृ० 134, 137) "सर्वास्तिवादियोंने नैयायिकोंके समान परमाणुसमुदायजन्य अवयवीको अतिरिक्त नहीं, किन्तु परमाणुसमुदायको ही अवयवी माना है। दोनोंने परमाणुको नित्य मानते हुए भी समुदाय और अवयवीको अनित्य माना है। सर्वास्तिवादियोंने एक ही परमाणुको अन्य परमाणुके संसर्गसे नाना अवस्थाएँ मानी हैं और उन्हीं नाना अवस्थाओंको अनित्य माना है, परमाणुको नहीं ( वही, पृ० 121, १३७)'-जैनतर्कवा० टि० पृ० 282 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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