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________________ 324 जैनदर्शन चित्तक्षण भी इसी तरह क्षणप्रवाहरूप है, अपरिवर्तनशील और नित्य नहीं हैं / इसी क्षणप्रवाहमें प्राप्त वासनाके अनुसार पूर्वक्षण उत्तरक्षणको उत्पन्न करता हुआ अपना अस्तित्व निःशेष करता जाता है। एकत्व और शाश्वतिकता भ्रम है / उत्तरका पूर्व के साथ इतना ही सम्बन्ध है कि वह उससे उत्पन्न हुआ है और उसका ही वह सर्वस्व है। जगत् केवल प्रतीत्यसमुत्पाद ही है। इससे यह उत्पन्न होता है' यह अनवरत कारणकार्यपरम्परा नाम और रूप सभीमें चाल है। निर्वाण अवस्थामें भी यही क्रम चाल रहता है। अन्तर इतना ही है कि जो चित्तसन्तति सास्रव थी, वह निर्वाणमें निरास्रव हो जाती है। विनाशका भी एक अपना क्रम है / मुद्गरका अभिघात होनेपर जो घटक्षण आगे द्वितीय समर्थ घटको उत्पन्न करता था वह असमर्थ, असमर्थतर और असमर्थतम क्षणोंको उत्पन्न करता हुआ कपालकी उत्पत्तिमें कारण हो जाता है। तात्पर्य यह कि उत्पाद सहेतुक है, न कि विनाश / चूँकि विनाशको किसी हेतुकी अपेक्षा नहीं है, अतः वह स्वभावतः प्रतिक्षण होता ही रहता है / उत्तरपक्ष: किन्तु 'क्षणिक परमाणुरूप पदार्थ माननेपर स्कन्ध अवस्था भ्रान्त ठहरती है / यदि पुञ्ज होने पर भी परमाणु अपनी परमाणुरूपता नहीं छोड़ते और स्कन्ध१. दिग्नागादि आचार्यों द्वारा प्रतिपादित क्षणिकवाद इसी रूपमें बुद्धको अभिप्रेत न था, इस विषयकी चर्चा प्रो० दलसुखजीने जैन तर्कवा० टि० पृ० 281 में इस प्रकार की है-'इस विषयमें प्रथम यह बात ध्यान देनेकी है कि भगवान् बुद्धने उत्पाद, स्थिति और व्यय इन तोनोंके भिन्न क्षण माने थे, ऐसा अंगुत्तरनिकाय और अभिधर्म ग्रन्थोंके देखनेसे प्रतीत होता है ( "उप्पादठितिभंगवसेन खणत्तयं एकचित्तक्खणं नाम / तानि पन सत्तरस चित्तक्खणानि रूपधम्मान आयु"-अभिधम्मत्थ० 4.8) अंगुत्तरनिकायमें संस्कृतके तीन लक्षण बताये गये हैं-संस्कृत वस्तुका उत्पाद होता है, व्यय होता है और स्थितिका अन्यथात्व होता है। इससे फलित होता है कि प्रथम उत्पत्ति, फिर जरा और फिर विनाश, इस क्रमसे वस्तुमें अनित्यता-णिकता सिद्ध है। चित्तक्षण क्षणिक है, इसका अर्थ है कि वह तीन क्षण तक है। प्राचीन बौद्ध शास्त्रमें मात्र चित्त-नाम हो को योगाचारको तरह वस्तुसत् नहीं माना है और उसकी आयु योगाचारकी तरह एकक्षण नहीं, स्वसम्मत चित्तकी तरह त्रिक्षण नहीं, किन्तु 17 क्षण मानी गई है। ये 17 क्षण भी समयके अर्थमें नहीं, किन्तु 17 चित्तक्षणके अर्थमें लिये गये हैं अर्थात् वस्तुतः एक चित्तक्षण बराबर 3 क्षण होनेसे 51 क्षणको आयु रूपकी मानी गई है। यदि अमिधम्मत्थसंगहकारने जो बताया है वैसा ही भगवान बुद्धको अभिप्रेत हो तो कहना होगा कि बुद्धसम्मत क्षणिकता और योगाचारलस्मत क्षणिकतामें महत्वपूर्ण अन्तर है। 'सस्सिमाविमोषी मतसे मत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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