________________ प्रमाणमीमांसा 323 रहकर धाराकी क्रमबद्धताका प्रतीक होता है। पूर्वोत्तर क्षणोंकी इस सन्ततिपरम्परामें कार्यकारणभाव और बन्ध-मोक्ष आदिकी व्यवस्था बन जाती है। स्थिर और स्थूल ये दोनों ही मनकी कल्पना हैं। इनका प्रतिभास सदृश उत्पत्तिमें एकत्वका मिथ्या भान होनेके कारण तथा पुञ्जमें सम्बद्धबुद्धि होनेके कारण होता है। विचार करके देखा जाय, तो जिसे हम स्थूल पदार्थ कहते हैं, वह मात्र परमाणुओंका पुञ्ज ही तो है। अत्यासन्न और असंसृष्ट परमाणुओंमें स्थूलताका भ्रम होता है। एक परमाणुका दूसरे परमाणुसे यदि सर्वात्मना संसर्ग माना जाता है; तो दो परमाणु मिलकर एक हो जायेंगे और इसी क्रमसे परमाणुओंका पिण्ड अणुमात्र ही रह जायगा। यदि एकदेशसे संसर्ग माना जाता है; तो छहों दिशाओंके छह परमाणुओंके साथ संसर्ग रखनेवाले मध्यवर्ती परमाणुके छह देश कल्पना करने पड़ेंगे। अतः केवल परमाणुका सञ्चय ही इन्द्रियप्रतीतिका विषय होता है। अर्थक्रिया ही परमार्थसत्का वास्तविक लक्षण है। कोई भी अर्थक्रिया या तो क्रमसे होती है या युगपत् / चूँकि 'नित्य और एकस्वभाववाले पदार्थमें न तो क्रमसे अर्थक्रिया सम्भव है और न युगपत् / अतः क्रम और यौगपद्यके अभावमें उससे व्याप्त अर्थक्रिया निवृत्त हो जाती है और अर्थक्रियाके अभावमें उससे सत्त्व निवृत्त होकर नित्य पदार्थको असत् सिद्ध कर देता है / सहकारियोंकी अपेक्षा नित्य पदार्थमें क्रम इसलिये नहीं बन सकता; कि नित्य जब स्वयं समर्थ है; तब उसे सहकारियोंकी अपेक्षा ही नहीं होनी चाहिए। यदि सहकारी कारण नित्य पदार्थमें कोई अतिशय या विशेषता उत्पन्न करते हैं, तो वह सर्वथा नित्य नहीं रह सकता। यदि कोई विशेषता नहीं लाते; तो उनका मिलना और न मिलना बराबर ही रहा / नित्य एकस्वभाव पदार्थ जब प्रथमक्षणभावी कार्य करता है; तब अन्य कार्यों के उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य उसमें है, या नहीं? यदि है; तो सभी कार्य एक साथ उत्पन्न होना चाहिए। यदि नहीं है और सहकारियोंके मिलनेपर वह सामर्थ्य आ जाती है; तो वह नित्य ओर एकरूप नहीं रह सकता। अतः प्रतिक्षण परिवर्तन-शील परमाणुरूप ही पदार्थ अपनी-अपनी सामग्रीके अनुसार विभिन्न कार्योंके उत्पादक होते हैं। 1. 'क्रमेण युगपञ्चापि यस्मादर्थक्रियाकृतः / न भवन्ति स्थिरा भावा निःसत्तास्ते ततो मताः // ' -तत्व० श्लो० 30. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org