________________ 322 जैनदर्शन जब पुरुष स्वयं राग, विराग, विपर्यय, विवेक और ज्ञान-विज्ञानरूप परिणमनोंका वास्तविक उपादान होता है, तब उसे हम लंगड़ा नहीं कह सकते। एक दृष्टिसे प्रकृति न केवल अन्धी है, किन्तु पुरुषके परिणमनोंके लिए वह लँगड़ी भी है। 'जो करे वह भोगे' यह एक निरपवाद सिद्धान्त है। अतः पुरुषमें जब वास्तविक भोक्तृत्व माने बिना चारा नहीं है, तब वास्तविक कर्तृत्व भी उसीमें मानना ही उचित है / जब कर्तृत्व और भोक्तृत्व अवस्थाएँ पुरुषगत ही हो जाती हैं, तब उसका कूटस्थ नित्यत्व अपने आप समाप्त हो जाता है / उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप परिणाम प्रत्येक सत्का अपरिहार्य लक्षण है, चाहे चेतन हो या अचेतन, मूर्त हो . या अमूर्त, प्रत्येक सत् प्रतिक्षण अपने स्वाभाविक परिणामी स्वभावके अनुसार एक पर्यायको छोड़कर दूसरी पर्यायको धारण करता चला जा रहा है। ये परिणमन सदृश भी होते हैं और विसदृश भी। परिणमनकी धाराको तो अपनी गतिसे प्रतिक्षण बहना है / बाह्याभ्यन्तर सामग्रीके अनुसार उसमें विविधता बराबर आती रहती है। सांख्यके इस मतको केवल सामान्यवादमें इसलिए शामिल किया है कि उसने प्रकृतिको एक, नित्य, व्यापक और अखण्ड तत्त्व मानकर उसे ही मूर्त, अमूर्त आदि विरोधी परिणमनोंका सामान्य आधार माना है। विशेषपदार्थवाद : बौद्धका पूर्वपक्ष : बौद्ध साधारणतया विशेषपदार्थको ही वास्तविक तत्त्व मानते हैं। स्वलक्षण, चाहे चेतन हो या अचेतन, क्षणिक और परमाणुरूप हैं। जो, जहाँ और जिस कालमें उत्पन्न होता है वह वहीं और उसी समय नष्ट हो जाता है / कोई भी पदार्थ देशान्तर और कालान्तरमें व्याप्त नहीं हो सकता, वह दो देशोंको स्पर्श नहीं कर सकता। हर पदार्थका प्रतिक्षण नष्ट होना स्वभाव है। उसे नाशके लिए किसी अन्य कारणकी आवश्यकता नहीं है। अगले क्षणकी उत्पत्तिके जितने कारण हैं उनसे भिन्न किसी अन्य कारणकी अपेक्षा पूर्वक्षणके विनाशको नहीं होती, वह उतने ही कारणोंसे हो जाता है, अतः उसे निर्हेतुक कहते हैं / निर्हेतुका अर्थ 'कारणोंके अभावमें हो जाना' नहीं है, किन्तु 'उत्पादके कारणोंसे भिन्न किसी अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं रखना' यह है। हर पूर्वक्षण स्वयं विनष्ट होता हुआ उत्तरक्षणको उत्पन्न करता जाता है और इस तरह एक वर्तमानक्षण ही अस्तित्वमें 1. 'यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैब सः। न देशकालयोर्व्याप्तिर्भावानामिह विद्यते // ' ---उद्धृत प्रमेयरत्नमाला 4 / 1 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org