________________ प्रमाणमीमांसा 321 और यह ही इसका उपकारक है। ऐसी हालतमें नियत प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यदि हो, तो प्रवृत्तिका अन्त नहीं आ सकता। 'पुरुषके भोगके लिए मैं सृष्टि करूं' यह ज्ञान भी अचेतन प्रकृतिको कैसे हो सकता है ? / वेश्याके दृष्टान्तसे बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था जमाना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वेश्याका संसर्ग उसो पुरुषसे होता है, जो स्वयं उसको कामना करता है, उसी पर उसका जादू चलता है। यानी अनुराग होने पर आसक्ति और विराग होने पर विरक्तिका चक्र तभी चलेगा, जब पुरुष स्वयं अनुराग और विराग अवस्थाओंको धारण करे / कोई वेश्या स्वयं अनुरक्त होकर किसी पत्थरसे नहीं चिपटती। अतः जब तक पुरुषका मिथ्याज्ञान, अनुराग और विराग आदि परिणमनोंका वास्तविक आधार नहीं माना जाता, तब तक बन्ध और मोक्षकी प्रक्रिया बन ही नहीं सकती। जब उसके स्वरूपभूत चैतन्यका ही प्रकृतिसंसर्गसे विकारी परिणमन हो तभी वह मिथ्याज्ञानी होकर विपर्ययमूलक बन्ध-दशाको पा सकता है और कैवल्यकी भावनासे संप्रज्ञात और असंप्रज्ञातरूप समाधिमें पहुँचकर जीवन्मुक्त और परममुक्त दशाको पहुँच सकता है। अतः पुरुषको परिणामी नित्य माने बिना न तो प्रतीतिसिद्ध लोकव्यवहारका ही निर्वाह हो सकता है और न पारमार्थिक लोक-परलोक या बन्ध-मोक्षव्यवस्थाका ही सुसंगत रूप बन सकता है। यह ठीक है कि पुरुषके प्रकृतिसंसर्गसे होनेवाले अनेक परिणमन स्थायी या निजस्वभाव नहीं कहे जा सकते, पर इसका यह अर्थ भी नहीं है कि केवल प्रकृतिके ही धर्म हैं; क्योंकि इन्द्रियादिके संयोगसे जो बुद्धि या अहंकार उत्पन्न होता है, आखिर है तो वह चेतनधर्म ही। चेतन ही अपने परिणामी स्वभावके कारण सामग्रीके अनुसार उन-उन पर्यायोंको धारण करता है। इसलिए इन संयोगजन्य धर्मोंमें उपादानभूत पुरुष इनकी वैकारिक जवाबदारीसे कैसे बच सकता है ? यह ठीक है कि जब प्रकृतिसंसर्ग छूट जाता है और पुरुष मुक्त हो जाता है तब इन धर्मोंकी उत्पत्ति नहीं होती, जब तक संसर्ग रहता है तभी तक उत्पत्ति होती है, इस तरह प्रकृतिसंसर्ग ही इनका हेतु ठहरता है, परन्तु यदि पुरुषमें विकार रूपसे परिणमनकी योग्यता और प्रवृत्ति न हो, तो प्रकृतिसंसर्ग बलात् उसमें विकार उत्पन्न नहीं कर सकता / अन्यथा मुक्त अवस्थामें भी विकार उत्पन्न होना चाहिये; क्योंकि व्यापक होनेसे मुक्त आत्माका प्रकृतिसंसर्ग तो छूटा नहीं है, संयोग तो उसका कायम है ही। प्रकृतिको चरितार्थ तो इसलिये कहा है कि जो पुरुष पहले उसके संसर्गसे संसारमें प्रवृत्त होता था, वह अब संसरण नहीं करता। अतः चरितार्थ और प्रवृतार्थ व्यवहार भी पुरुषकी ओरसे ही है, प्रकृतिको ओरसे नहीं। 21 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org