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________________ 320 जैनदर्शन की जा सकती हैं, पर इन विभिन्न भावोंको चेतनसे भिन्न जड़-प्रकृतिका धर्म नहीं माना जा सकता / जलमें कमलकी तरह पुरुष यदि सर्वथा निर्लिप्त है, तो प्रकृतिगत परिणामोंका औपचारिक भोक्तृत्व घटा देनेपर भी वस्तुतः न तो वह भोक्ता ही सिद्ध होता है और न चेतयिता ही। अतः पुरुषको वास्तविक उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यका आधार मानकर परिणामी नित्य ही स्वीकार करना चाहिए / अन्यथा कृतनाश और अकृताभ्यागम नामके दूषण आते हैं। जिस प्रकृतिने कार्य किया, बह तो उसका फल नहीं भोगती और जो पुरुष भोक्ता होता है, वह कर्ता नहीं है / यह असंगति पुरुषको अधिकारी मानने में बनी ही रहती है। ___यदि 'व्यक्त' रूप महदादि विकार और 'अव्यक्त' रूप प्रकृतिमें अभेद है, तो महदादिको उत्पत्ति और विनाशसे प्रकृति अलिप्त कैसे रह सकती है ? अतः परस्पर विरोधी अनन्त कार्योंकी उत्पत्तिके निर्वाहके लिए अनन्त ही प्रकृतितत्त्व जुदे-जुदे मानना चाहिये, जिसके विलक्षण परिणमनोंसे इस सृष्टिका वैचित्र्य सुसंगत हो सकता है / वे सब तत्त्व एक प्रकृतिजातिके हो सकते हैं यानी जातिकी अपेक्षा वे एक कहे जा सकते हैं; पर सर्वथा एक नहीं, उनका पृथक् अस्तित्व रहना ही चाहिए / शब्दसे आकाश, रूपसे अग्नि इत्यादि गुणोंसे गुणीकी उत्पत्तिकी बात असंगत है / गुण गुणीको पैदा नहीं करता, बल्कि गुणीमें ही नाना गुण अवस्थाभेदसे उत्पन्न होते और विनष्ट होते हैं। घट, सकोरा, सुराही आदि कार्यों में मिठ्ठीका अन्वय देखकर यही तो सिद्ध किया जा सकता है कि इनके उत्पादक परमाणु एक मिट्टी जातिके हैं। सत्कार्यवादकी सिद्धिके लिए जो 'असदकरणात्' आदि पाँच हेतु दिये हैं, वे सब कथञ्चित् सद्-असद् कार्यवादमें ही सम्भव हो सकते हैं / अर्थात् प्रत्येक कार्य अपने आधारभूत द्रव्यमें शक्तिकी दृष्टिसे ही सत् कहा जा सकता है, पर्यायकी दृष्टिसे नहीं। यदि पर्यायकी दृष्टिसे भी सत् हो; तो कारणोंका व्यापार निरर्थक हो जाता है। उपादान-उपादेयभाव, शक्य हेतुका शक्यक्रिय कार्यको ही पैदा करना, और कारणकार्यविभाग आदि कथंचित् सत्कार्यवादमें ही सम्भव हैं। त्रिगुणका अन्वय देखकर कार्योंको एक जातिका ही ती माना जा सकता है न कि एक कारणसे उत्पन्न / समस्त पुरुषोंमें परस्पर चेतनत्व और भोक्तृत्व आदि धर्मोंका अन्वय देखा जाता है; पर वे सब किसी एक कारणसे उत्पन्न नहीं हुए हैं। प्रधान और पुरुषमें नित्यत्व, सत्त्व आदि धर्मोंका अन्वय होनेपर भी दोनोंकी एक कारणसे उत्पत्ति नहीं मानी जाती। यदि प्रकृति नित्यस्वभाव होकर तत्त्वसृष्टि या भूतसृष्टिमें प्रवृत्त होती है; तो अचेतन प्रकृतिको यह ज्ञान नहीं हो सकता कि इतनी ही तत्त्वसृष्टि होनी चाहिए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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