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________________ प्रमाणमीमांसा 319 यदि बन्ध और मोक्ष प्रकृतिको ही होते हैं, तो पुरुषको कल्पना निरर्थक है / बुद्धिमें विषयकी छाया पड़नेपर भी यदि पुरुषमें भोक्तृत्वरूप परिणमन नहीं होता, तो उसे भोक्ता कैसे माना जाय ? पुरुष यदि सर्वथा निष्क्रिय है; तो वह भोगक्रियाका कर्ता भी नहीं हो सकता और इसीलिए भोक्तृत्वके साथ अकर्ता पुरुषकी कोई संगति ही नहीं बैठती। - मूल प्रकृति यदि निर्विकार है और उत्पाद और व्यय केवल धर्मों में ही होते हैं, तो प्रकृतिको परिणामी कैसे कहा जा सकता है ? कारणमें कार्योत्पादनकी शक्ति तो मानी जा सकती है, पर कार्यकालकी तरह उसका प्रकट सद्भाव स्वीकार नहीं किया जा सकता। 'मिट्टीमें घड़ा अपने आकारमें मौजूद है और वह केवल कुम्हारके व्यापारसे प्रकट होता है' इसके स्थानमें यह कहना अधिक उपयुक्त है कि 'मिट्टीमें सामान्य रूपसे घटादि कार्योंके उत्पादन करनेकी शक्ति है, कुम्हारके व्यापार आदिका निमित्त पाकर वह शक्तिवाली मिट्टी अपनी पूर्वपिण्डपर्यायको छोड़कर घटपर्यायको धारण करती हैं', यानी मिट्टी स्वयं घड़ा बन जाती है / कार्य द्रव्यकी पर्याय है और वह पर्याय किसी भी द्रव्यमें शक्तिरूपसे ही व्यवहृत हो सकती है। वस्तुतः प्रकृतिके संसर्गसे उत्पन्न होनेपर भी बुद्धि, अहंकार आदि धर्मोका आधार पुरुष ही हो सकता है, भले ही ये धर्म प्रकृतिसंसर्गज होनेसे अनित्य हों। अभिन्न स्वभाववाली एक ही प्रकृति अखण्ड तत्त्व होकर कैसे अनन्त पुरुषोंके साथ विभिन्न प्रकारका संसर्ग एक साथ कर सकती है ? अभिन्न स्वभाव होनेके कारण सबके साथ एक प्रकारका ही संसर्ग होना चाहिये। फिर मुक्तात्माओंके साथ असंसर्ग और संसारी आत्माओंके साथ संसर्ग यह भेद भी व्यापक और अभिन्न प्रकृतिमें कैसे बन सकता है ? प्रकृतिको अन्धी और पुरुषको पङ्ग मानकर दोनोंके संसर्गसे सृष्टिको कल्पनाका विचार सुननेमें सुन्दर तो लगता है, पर जिस प्रकार अन्ध और पङ्ग दोनोंमें संसर्गकी इच्छा और उस जातिका परिणमन होनेपर ही सृष्टि सम्भव होती है, उसी तरह जबतक पुरुष और प्रकृति दोनोंमें स्वतन्त्र परिणमनकी योग्यता नहीं मानी जायगी तबतक एकके परिणामी होनेपर भी न तो संसर्गकी सम्भावना है और न सृष्टिकी ही। दोनों एक दूसरेके परिणमनोंमें निमित्त कारण हो सकते हैं, उपादान नहीं। __ एक ही चैतन्य हर्ष, विषाद, ज्ञान, विज्ञान आदि अनेक पर्यायोंको धारण करनेवाला संविद्-रूपसे अनुभवमें आता है / उसीमें महान्, अहङ्कार आदि संज्ञाएँ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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