________________ 318 जैनदर्शन होता है, यानी परिणमन तो बुद्धिमें ही होता है और भोगका भान पुरुषमें होता है। वही बुद्धि पुरुष और पदार्थ दोनोंकी छायाको ग्रहण करती है। इस तरह द्धिदर्पणमें दोनोंके प्रतिबिम्बित होनेका नाम ही भोग है। वैसे पुरुष तो कूटस्थनित्य और अविकारी है, उसमें कोई परिणमन नहीं होता। ____बँधती भी प्रकृति ही है और छूटती भी प्रकृति ही है। प्रकृति एक वेश्याके समान है। जब वह जान लेती है कि इस पुरुषको 'मैं प्रकृतिका नहीं हूँ, प्रकृति मेरी नहीं है' इस प्रकारका तत्त्वज्ञान हो गया है और यह मुझसे विरक्त है, तब वह स्वयं हताश होकर पुरुषका संसर्ग छोड़ देती है। तात्पर्य यह कि सारा खेल इस प्रकृतिका है। उत्तरपक्ष : किन्तु सांख्यकी इस तत्त्वप्रक्रियामें सबसे बड़े दोष ये हैं। जब 'एक ही प्रधानका अस्तित्व संसार में है, तब उस एक तत्त्वसे महान्, अहंकाररूप चेतन और रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि अचेतन इस तरह परस्पर विरोधी दो कार्य कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? उसी एक कारणसे अभूतिक आकाश और मूर्तिक पृथिव्यादिकी उत्पत्ति मानना भी किसी तरह संगत नहीं है / एक कारण परस्पर अत्यन्त विरोधी दो कार्योंको उत्पन्न नहीं कर सकता। विषयोंका निश्चय करनेवाली बुद्धि और अहंकार चेतनके धर्म है। इनका उपादान कारण जड़ प्रकृति नहीं हो सकती। सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंके कार्य जो प्रसाद, ताप, शोष आदि बताये हैं, वे भी चेतनके ही विकार है। उसमें प्रकृतिको उपादान कहना किसी भी तरह संगत नहीं है। एक अखण्ड तत्त्व एक ही समयमें परस्पर विरोधी चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त, सत्त्वप्रधान, रजःप्रधान, तमःप्रधान आदि अनेक विरोधी कार्योंके रूपसे कैसे वास्तविक परिणमन कर सकता है ? किसी आत्मामें एक पुस्तक राग उत्पन्न करती है और वही पुस्तक दूसरी आत्मामें द्वेष उत्पन्न करती है, तो उसका अर्थ नहीं है कि पुस्तक में राग और द्वेष हैं। चेलन भावोंमें चेतन ही उपादान हो सकता है, जड़ नहीं / स्वयं राग और द्वेषसे शून्य जड़ पदार्थ आत्माओंके राग और द्वेषके निमित्त बन सकते हैं। 1. यद्यपि मौलिक सांख्योंका एक प्राचीन पक्ष यह था कि हर एक पुरुषके साथ संसर्ग रखने वाला 'प्रधान' जुदा-जुदा है अर्थात् प्रधान अनेक है। जैसा कि षट्द० समु० गुणरत्नटीका ( पृ० 99 ) के इस अवतरणसे ज्ञात होता है-"मौलिकसांख्या हि आत्मानमात्मानं प्रति पृथक् प्रवानं वदन्ति / उत्तरे तु सांख्याः सर्वात्मस्त्रपि एकं नित्यं प्रधानमिति प्रतिपन्नाः।" किन्तु सांख्यकारिका आदि उपलब्ध सांख्यग्रन्थों में इस पक्ष का कोई निर्देश तक नहीं मिलता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org