________________ प्रमाणमीमांसा 317 समस्त जगतका कारण एक प्रधान है। एक प्रधान अर्थात् प्रकृतिसे यह समस्त जगत उत्पन्न होता है। 'प्रधानसे उत्पन्न होनेवाले कार्य परिमित देखे जाते हैं। उनकी संख्या है। सबमें सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंका अन्वय देखा जाता है। हर कार्य किसी-न-किसीको प्रसाद, लाघव, हर्ष, प्रीति ( सत्त्वगुणके कार्य), ताप, शोष, उद्वेग ( रजोगुणके कार्य ), दैन्य, बीभत्स, गौरव ( तमोगुणके कार्य ) आदि भाव उत्पन्न करता है। यदि कार्योंमें स्वयं सत्त्व, रज और तम ये तीन गुण न होते; तो वह उक्त भावोंमें कारण नहीं बन सकता था। प्रधानमें ऐसी शक्ति है, जिससे वह महान् आदि 'व्यक्त' उत्पन्न करता है। जिस तरह घटादि कार्योंको देखकर उनके मिट्टी आदि कारणोंका अनुमान होता है, उसी तरह 'महान्' आदि कार्योसे उनके उत्पादक प्रधानका अनुमान होता है / प्रलयकालमें समस्त कार्योंका लय इसी एक प्रकृतिमें हो जाता है। पाँच महाभूत पाँच तन्मात्राओंमें, तन्मात्रादि सोलह गण अहंकारमें, अहंकार बुद्धिमें और बुद्धि प्रकृतिमें लीन हो जाती है। उस समय व्यक्त अव्यक्तका विवेक नहीं रहता। २इनमें मूल प्रकृति कारण ही होती है और ग्यारह इन्द्रियाँ तथा पाँच भूत ये सोलह कार्य ही होते हैं और महान, अहंकार तथा पाँच तन्मात्राएँ ये सात पूर्वकी अपेक्षा कार्य और उत्तरको अपेक्षा कारण होते हैं। इस तरह एक सामान्य प्रधान तत्त्वसे इस समस्त जगतका विपरिणाम होता है और प्रलयकालमें उसीमें उनका लय हो जाता है। पुरुष जलमें कमलपत्रकी तरह निर्लिप्त है, साक्षी है, चेतन है और निर्गुण है। प्रकृतिसंसर्गके कारण 'बुद्धिरूपी माध्यमके द्वारा इसमें भोगकी कल्पना की जाती है / बुद्धि दोनों ओरसे पारदर्शी दर्पणके समान है / इस मध्यभूत बुद्धि दर्पणमें एक ओरसे इन्द्रियों द्वारा विषयोंका प्रतिबिम्ब पड़ता है और दूसरी ओरसे पुरुषकी छाया। इस छायापत्तिके कारण पुरुषमें भोगनेका भान 1. “भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तेश्च / कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य // " -सांख्यका० 15 / 2. "मूलप्रकृतिरविकृतिः महादाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त / पोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः // " -सांख्यका० 3 / 3. “बुद्धिदर्पणे पुरुषप्रतिबिम्बसङक्रान्तिरेव बुद्धिप्रतिसंवेदित्वं पुंसः / तथा च दृशिच्छायापन्नया बुद्धया संसृष्टाः शब्दादयो भवन्ति दृश्या इत्यर्थः।"-योगसू० तत्त्ववै० 2 / 20 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org