________________ 316 जैनदर्शन और महान् आदि विकारोंको उत्पन्न करती है। कारणरूप प्रधान 'अव्यक्त' कहां जाता है और कार्यरूप 'व्यक्त'। 'इस प्रधानसे, जो कि व्यापक, निष्क्रिय और एक है; सबसे पहले विषयको निश्चय करनेवाली बुद्धि उत्पन्न होती है। इसे महान् कहते हैं / महान्से 'मैं सुन्दर हूँ, मैं दर्शनीय हूँ' इत्यादि अहंकार पैदा होता है / अहंकारसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये पाँच तन्मात्राएँ; स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ; वचन, हाथ, पैर, मलस्थान और मूत्रस्थान ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन इस प्रकार सोलह गण पैदा होते हैं / इनमें शब्दतन्मात्रासे आकाश, स्पर्शतन्मात्रासे वायु, रसतन्मात्रासे जल, रूपतन्मात्रासे अग्नि और गन्धतन्मात्रासे पृथ्वी इस प्रकार पाँच महाभूत उत्पन्न होते हैं / प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले महान् आदि तेईस विकार प्रकृतिके ही परिणाम हैं और उत्पत्तिके पहले प्रकृतिरूप कारणमें इनका सद्भाव है। इसीलिए सांख्य सत्कार्यवादी माने जाते हैं। इस सत्कार्यवादको सिद्ध करनेके लिए निम्नलिखित पाँच हेतु दिये जाते हैं 2 : (1) कोई भी असत्कार्य पैदा नहीं होता। यदि कारणमें कार्य असत् हो, तो वह खरविषाणकी तरह उत्पन्न ही नहीं हो सकता। (2) यदि कार्य असत् होता, तो लोग प्रतिनियत उपादान कारणोंका ग्रहण क्यों करते ? कोदोंके अंकुरके लिए कोदोंके बीजका बोया जाना और चनेके बीजका न बोया जाना, इस बातका प्रमाण है कि कारणमें कार्य सत् है। ( 3 ) यदि कारणमें कार्य असत् है, तो सभी कारणोंसे सभी कार्य उत्पन्न होना चाहिये थे। लेकिन सबसे सब कार्य उत्पन्न नहीं होते। अतः ज्ञात होता है कि जिनसे जो उत्पन्न होते हैं उनमें उन कार्योंका सद्भाव है। (4) प्रतिनियत कारणोंकी प्रतिनियत कार्यके उत्पन्न करने में ही शक्ति देखी जाती है। समर्थ भी हेतु शक्यक्रिय कार्यको ही उत्पन्न करते हैं, अशक्यको नहीं। जो अशक्य है वह शक्यक्रिय हो ही नहीं सकता। (5) जगतमें कार्यकारणभाव ही सत्कार्यवादका सबसे बड़ा प्रमाण है। बीजको कारण कहना इस बातका साक्षी है कि उसमें ही कार्यका सद्भाव है, अन्यथा उसे कारण ही नहीं कह सकते थे। 1. "प्रकृतेर्महान् ततोऽहङ्कारः तस्माद् गणश्च षोडशकः / तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि // " -सांख्यका०३२ / 2. सांख्यका०९। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org