________________ प्रमाणमीमांसा 315 शब्दब्रह्म जब अर्थरूपसे परिणमन करता है, तब यदि शब्दरूपताको छोड़ देता है, तो सर्वथा नित्य कहाँ रहा ? यदि नहीं छोड़ता है, तो शब्द और अर्थ दोनोंका एक इन्द्रियके द्वारा ग्रहण होना चाहिये / एक शब्दाकारसे अनुस्यूत होनेके कारण जगतके समस्त प्रत्ययोंको एकजातिवाला या समानजातिवाला तो कह सकते हैं, पर एक नहीं। जैसे कि एक मिट्टीके आकारसे अनुस्यूत होनेके कारण घट, सुराही, सकोरा आदिको मिट्टीकी जातिका और मिट्टीसे बना हुआ ही तो कहा जाता है, न कि इन सबकी एक सत्ता स्थापित की जा सकती है। जगतका प्रत्येक पदार्थ समान और असमान दोनों धर्मोंका आधार होता है। समान धर्मोकी दृष्टिसे उनमें 'एक जातिक' व्यवहार होनेपर भी अपने व्यक्तिगत असाधारण स्वभावके कारण उनका स्वतन्त्र अस्तित्व रहता ही है / प्राणोंको अन्नमय कहनेका अर्थ यह नहीं है कि अन्न और प्राण एक वस्तु हैं। विशुद्ध आकाशमें तिमिर-रोगीको जो अनेक प्रकारकी रेखाओंका मिथ्या भान होता है, उसमें मिथ्या-प्रतिभासका कारण तिमिररोग वास्तविक है, तभी वह वस्तुसत् आकाशमें वस्तुसत् रोगीको मिथ्या प्रतीति कराता है। इसी तरह यदि भेदप्रतिभासकी कारणभूत अविद्या वस्तुसत् मानी जाती है; तो शब्दाद्वैतवाद अपने आप समाप्त है। अतः शुष्क कल्पनाके क्षेत्रमे निकलकर दर्शनशास्त्रमें हमें स्वसिद्ध पदार्थोकी विज्ञानाविरुद्ध व्याख्या करनी चाहिये, न कि कल्पनाके आधारसे नये-नये पदार्थों की सृष्टि / 'सभी ज्ञान शब्दान्वित हों ही' यह भी ऐकान्तिक नियम नहीं है; क्योंकि भाषा और संकेतसे अनभिज्ञ व्यक्तिको पदार्थोंका प्रतिभास होने पर भी तद्वाचक शब्दोंकी योजना नहीं हो पाती। अतः शब्दाद्वैतवाद भी प्रत्यक्षादिसे बाधित है। सांख्यके 'प्रधान' सामान्यवादकी मीमांसा : पूर्वपक्ष: सांख्य मूलमें दो तत्त्व मानते हैं। एक प्रकृति और दूसरा पुरुष / पुरुषतत्त्व व्यापक, निष्क्रिय, कूटस्थ, नित्य और ज्ञानादिपरिणामसे शून्य केवल चेतन है / यह पुरुषतत्त्व अनन्त है, सबकी अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। प्रकृति, जिसे प्रधान भी कहते हैं, परिणामी-नित्य है / इसमें एक अवस्था तिरोहित होकर दूसरी अवस्था आविर्भूत होती है। यह एक है, त्रिगुणात्मक है, विषय है, सामान्य है 1. “त्रिगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि / व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान् // " -सांख्यका० 11 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org