________________ 354 जैनदर्शन सुननेसे श्रोत्रका दाह, अभिघात और छेदन आदि होना चाहिये। शब्द और अर्थ भिन्न देश, भिन्न काल और भिन्न आकारवाले होकर एक दूसरेसे निरपेक्ष विभिन्न इन्द्रियोंसे गृहीत होते हैं / अतः उनमें तादात्म्य मानना युक्ति और अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है। जगतका व्यवहार केवल शब्दात्मक ही तो नहीं है ? अन्य संकेत, स्थापना आदिके द्वारा भी सैकड़ों व्यवहार चलते हैं। अतः शाब्दिक व्यवहार शब्दके बिना न भी हों; पर अन्य व्यवहारोंके चलनेमें क्या बाधा है ? यदि शब्द और अर्थ अभिन्न हैं; तो अंधेको शब्दके सुननेपर रूप दिखाई देना चाहिये और बहरेको रूपके दिखाई देनेपर शब्द सुनाई देना चाहिये / .. शब्दसे अर्थकी उत्पत्ति कहना या शब्दका अर्थरूपसे परिणमन मानना विज्ञानसिद्ध कार्यकारणभावके सर्वथा प्रतिकूल है। शब्द तालु आदिके अभिघातसे उत्पन्न होता है और घटादि पदार्थ अपने-अपने कारणोंसे / स्वयंसिद्ध दोनोंमें संकेतके अनुसार वाच्य-वाचकभाव बन जाता है। जो उपनिषद्वाक्य शब्दब्रह्मकी सिद्धिके लिये दिया जाता है, उसका सीधा अर्थ तो यह है कि दो' विद्याएँ जगतमें उपादेय हैं-एक शब्दविद्या और दूसरी ब्रह्मविद्या। शब्दविद्यामें निष्णात व्यक्तिको ब्रह्मविद्याकी प्राप्ति सहजमें हो सकती है। इसमें शब्दज्ञान और आत्मज्ञानका उत्पत्ति-क्रम बताया गया है, न कि जगतमें 'मात्र एक शब्दतत्त्व है', इस प्रतीतिविरुद्ध अव्यावहारिक सिद्धान्तका प्रतिपादन किया गया है। सीधी-सी बात है कि साधकको पहले शब्दव्यवहारमें कुशलता प्राप्त करनी चाहिये, तभी वह शब्दोंकी उलझनसे ऊपर उठकर यथार्थ तत्त्वतक पहुँच सकता है। अविद्या और मायाके नामसे सुनिश्चित कार्यकारणभावमूलक जगतके व्यवहारोंको और घटपटादि भेदोंको काल्पनिक और असत्य इसलिए नहीं ठहराया जा सकता कि स्वयं अविद्या जब भेदप्रतिभासरूप या भेदप्रतिभासरूपी कार्यको उत्पन्न करनेवाली होनेसे वस्तुसत् सिद्ध हो जाती है, तब वह स्वयं पृथक् सत् होकर उस अद्वैतकी विघातक बनती है। निष्कर्ष यह कि अविद्याकी तरह अन्य घटपटादिभेदोंको वस्तुसत् होनेमें क्या बाधा है। - सर्वथा नित्य शब्दब्रह्मसे न तो कार्योंकी क्रमिक उत्पत्ति हो सकती है और न उसका क्रमिक परिणमन ही; क्योंकि नित्य पदार्थ सदा एकरूप, अविकारी और समर्थ होनेके कारण क्रमिक कार्य या परिणमनका आधार नहीं हो सकता। सर्वथा नित्यमें परिणमन कैसा? 1. 'वे विद्य वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ।'-ब्रह्मबिन्दू० 22 ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org