________________ प्रमाणमीमांसा शब्दाद्वैतवादसमीक्षा : पूर्वपक्ष: भर्तृहरि आदि वैयाकरण जगतमें मात्र एक 'शब्द'को परमार्थ सत् कहकर समस्त वाच्य-वाचकतत्त्वको उसी शब्दब्रह्मका विवर्त मानते हैं / यद्यपि उपनिषदें शब्दब्रह्म और परब्रह्मका वर्णन आता है और उसमें यह बताया गया है कि शब्दब्रह्ममें निष्णात व्यक्ति परब्रह्मको प्राप्त करता है। इनका कहना है कि संसारके समस्त ज्ञान शब्दानुविद्ध ही अनुभवमें आते हैं। यदि प्रत्ययोंमें शब्दसंस्पर्श न हो तो उनकी प्रकाशरूपता ही समाप्त हो जायगी / ज्ञानमें वागरूपता शाश्वती है और वही उसका प्राण है। संसारका कोई भी व्यवहार शब्दके बिना नहीं होता। अविद्याके कारण संसारमें नाना प्रकारका भेद-प्रपञ्च दिखाई देता है / वस्तुतः सभी उसी शब्दब्रह्मकी ही पर्यायें हैं / जैसे एक ही जल वीची, तरंग, बुद्बुद और फेन आदिके आकारको धारण करता है, उसी तरह एक ही शब्दब्रह्म वाच्य-वाचकरूपसे काल्पनिक भेदोंमें विभाजित-सा दिखता है। भेद डालनेवाली अविद्याके नाश होने पर समस्त प्रपञ्चोंसे रहित निर्विकल्प शब्दब्रह्मकी प्रतीति हो जाती है। उत्तरपक्ष : किन्तु इस शब्दब्रह्मवादकी प्रक्रिया उसी तरह दूषित है, जिस प्रकार कि पूर्वोक्त ब्रह्माद्वैतवादकी। यह ठीक है कि शब्द, ज्ञानके प्रकाश करनेका एक समर्थ माध्यम है और दूसरे तक अपने भावों और विचारोंको बिना शब्दके नहीं भेजा जा सकता / पर इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि जगतमें एक शब्दतत्त्व ही है / कोई बूढ़ा लाठीके बिना नहीं चल सकता तो बूढ़ा, लाठी, गति और जमीन सब लाठीकी पर्यायें तो नहीं हो सकती ? अनेक प्रतिभास ऐसे होते हैं जिन्हें शब्दकी स्वल्प शक्ति स्पर्श भी नहीं कर सकती और असंख्य पदार्थ ऐसे पड़े हुए हैं जिन तक मनुष्यका संकेत और उसके द्वारा प्रयुक्त होनेवाले शब्द नहीं पहुंच पाये हैं। घटादि पदार्थोंको कोई जाने, या न जाने, उनके वाचक शब्दका प्रयोग करे, या न करे; पर उनका अपना अस्तित्व शब्द और ज्ञानके अभावमें भी है ही। शब्दरहित पदार्थ आँखसे दिखाई देता है और अर्थरहित शब्द कानसे सुनाई देता है। यदि शब्द और अर्थमें तादात्म्य हो, तो अग्नि, पत्थर, छुरा आदि शब्दोंको 1. 'अनादिनिधनं शब्दब्रह्मतत्त्वं यदक्षरम् / विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥'-वाक्यप० 1 / 1 / 2. 'शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।'–ब्रह्मबिन्दूप० 22 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org