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________________ 312 जैनदर्शन चरमविकास कहकर खुश होना स्वयं उसकी व्यावहारिक और प्रातिभासिक सत्ताको घोषित करना है / हम वैज्ञानिक प्रयोग करनेपर भी दो परमाणुओंको अनन्त कालके लिए अविभागी एकद्र व्य नहीं बना सकते, यानी एककी सत्ताका लोप विज्ञानको भट्टी भी नहीं कर सकती। तात्पर्य यह है कि दिमागी कल्पनाओंको पदार्थव्यवस्थाका आधार नहीं बनाया जा सकता। ___ यह ठीक है कि हम प्रतिभासके बिना पदार्थका अस्तित्व दूसरेको न समझा सकें और न स्वयं समझ सकें, परन्तु इतने मात्रसे उस पदार्थको 'प्रतिभासस्वरूप' ही तो नहीं कहा जा सकता ? अँधेरेमें यदि बिना प्रकाशके हम घटादि पदार्थोंको नहीं देख सकते और न दूसरोंको दिखा सकते हैं; तो उसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि घटादि पदार्थ 'प्रकाशरूप' हो हैं / पदार्थों की अपने कारणोंसे अपनीअपनी स्वतन्त्र सत्ताएँ हैं और प्रकाशकी अपने कारणोंसे / फिर भी जैसे दोनोंमें प्रकाश्य-प्रकाशकभाव है उसी तरह प्रतिभास और पदार्थोंमें प्रतिभास्य-प्रतिभासकभाव है। दोनोंकी एक सत्ता कदापि नहीं हो सकती। अतः परम काल्पनिक संग्रहनयकी दृष्टि से समस्त जगतके पदार्थोंको एक 'सत्' भले ही कह दिया जाय, पर यह कहना उसी तरह एक काल्पनिक शब्दसंकेतमात्र है, जिस तरह दुनियाँके अनन्त आमोंको एक आम शब्दसे कहना। जगतका हर पदार्थ अपने व्यक्तित्वके लिए संघर्ष करता दिखलाई दे रहा है और प्रकृतिका नियम अल्पकालके लिए उसके अस्तित्वको दूसरेसे सम्बद्ध करके भी उसे अन्तमें स्वतन्त्र ही रहनेका विधान करता है। जड़परमाणुओंमें इस सम्बन्धका सिलसिला परस्परसंयोगके कारण बनता और बिगड़ता रहता है, परन्तु चेतनतत्त्वोंमें इसकी भी संभावना नहीं है। सबकी अपनी-अपनी अनुभूतियाँ, वासनाएँ और प्रकृतियाँ जुदी-जुदी हैं। उनमें समानता हो सकती है, एकता नहीं। इस तरह अनन्त भेदोंके भण्डारभूत इस विश्वमें एक अद्वैतकी बात सुन्दर कल्पनासे अधिक महत्त्व नहीं रखती। जैन दर्शनमें इस प्रकारकी कल्पनाओंको संग्रहनयमें स्थान देकर भी एक शर्त लगा दी है कि कोई भी नय अपने प्रतिपक्षी नयसे निरपेक्ष होकर सत्य नहीं हो सकता। यानी भेदसे निरपेक्ष अभेद परमार्थसतकी पदवीपर नहीं पहुँच सकता। उसे यह कहना ही होगा कि 'इन स्वयं सिद्ध भेदोंमें इस दृष्टिसे अभेद कहा जा सकता है।' जो नय प्रतिपक्षी नयके विषयका निराकरण करके एकान्तकी ओर जाता है वह दुर्नय है-नयाभास है। अतः सन्मात्र अद्वैत संग्रहनयका विषय नहीं होता, किन्तु संग्रहनयाभासका विषय है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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