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________________ प्रमाणमीमांसा चाहिये कि विज्ञानके इस सुसम्बद्ध कार्यकारणभावके युगमें उसका कोई विशिष्ट स्थान नहीं रहने पायगा। ठोस वस्तुका आधार छोड़कर केवल दिमागी कसरतमें पड़े रहनेके कारण ही आज भारतीयदर्शन अनेक विरोधाभासोंका अजायबघर बना हुआ है। दर्शनका केवल यही काम था कि वह स्वयंसिद्ध पदार्थोंका समुचित वर्गीकरण करके उनकी व्याख्या करता, किन्तु उसने प्रयोजन और उपयोगकी दृष्टिसे पदार्थोंका काल्पनिक निर्माण ही शुरू कर दिया है ! विभिन्न प्रत्ययोंके आधारसे पदार्थोंकी पृथक्-पृथक् सत्ता माननेका क्रम ही गलत है। एक ही पदार्थमें अवस्थाभेदसे विभिन्न प्रत्यय हो सकते हैं / 'एक जातिका होना' और 'एक होना' बिल्कुल जुदी बात है / 'सर्वत्र 'सत् सत्' ऐसा प्रत्यय होनेके कारण सन्मात्र एक तत्त्व है।' यह व्यवस्था देना केवल निरी कल्पना ही है, किन्तु प्रत्यक्षादिसे बाधित भी है। दो पदार्थ विभिन्नसत्ताके होते हुए भी सादृश्यके कारण समानप्रत्ययके विषय हो सकते हैं / पदार्थोंका वर्गीकरण सादृश्यके कारण ‘एक जातिक' के रूपमें यदि होता है तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि वे सब पदार्थ 'एक ही' हैं / अनन्त जड़ परमाणुओंको सामान्यलक्षणसे एक पुद्गलद्रव्य या अजीवद्रव्य जो कहा जाता है वह जातिकी अपेक्षा है, व्यक्तियाँ तो अपना पृथक-पृथक् सत्ता रखने वाली जुदी-जुदी ही हैं। इसी तरह अनन्त जड़ और अनन्त चेतन पदार्थोंको एक द्रव्यत्वकी दृष्टिसे एक कहनेपर भी उनका अपना पृथक् व्यक्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। इसी तरह द्रव्य, गुण, पर्याय आदिको एक सत्की दृष्टिसे सन्मात्र कहनेपर भी उनके द्रव्य और द्रव्यांश रूपके अस्तित्वमें कोई बाधा नहीं आनी चाहिये / ये सब कल्पनाएँ सादृश्य-मूलक हैं, न कि एकत्व-मूलक / एकत्व-मूलक अभेद तो प्रत्येक द्रव्यका अपने गुण और पर्यायोंके साथ ही हो सकता है वह अपनी कालक्रमसे होनेवाली अनन्त पर्यायोंकी अविच्छिन्न धारा है, जो सजातीय और विजातीय द्रव्यान्तरोंसे असंक्रान्त रहकर अनादि अनन्त प्रवाहित है। इस तरह प्रत्येक द्रव्यका अद्वैत तात्त्विक और पारमार्थिक है, किन्तु अनन्त अखण्ड द्रव्योंका 'सत्' इस सामान्यदृष्टिसे किया जानेवाला सादृश्यमूलक संगठन काल्पनिक और व्यावहारिक ही है पारमार्थिक नहीं। हो / अमुक भू-खण्डका नाम अमुक देश रखनेपर भी वह देश कोई द्रव्य नहीं बन जाता और न उसका मनुष्यके भावोंके अतिरिक्त कोई बाह्यमें पारमार्थिक स्थान ही है। 'सेना, वन' इत्यादि संग्रह-मूलक व्यवहार शब्दप्रयोगकी सहजताके लिए हैं; न कि इनके पारमार्थिक अस्तित्व साधनके लिए। अतः अद्वैतको कल्पनाका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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