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________________ जैनदर्शन ___ अविद्याको भिन्नाभिन्नादि विचारोंसे दूर रखना भी उचित नहीं है। क्योंकि इतरेतराभाव आदि अवस्तु होनेपर भी भिन्नाभिन्नादि विचारोंके विषय होते हैं, तथा गुड़ और मिश्रीके परस्पर मिठासका तारतम्य वस्तु होकर भी विचारका विषय नहीं हो पाता। अतः प्रत्यक्षसिद्ध भेदका लोप कर काल्पनिक अभेदके आधारसे परमार्थ ब्रह्मकी कल्पना करना व्यवहारविरुद्ध तो है ही, प्रमाण-विरुद्ध भी है। हाँ, प्रत्येक द्रव्य अपनेमें अद्वैत है। वह अपनी गुण और पर्यायोंमें अनेक प्रकारसे भासमान होता है; किन्तु यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि वे गुण और पर्यायरूप भेद द्रव्यमें वास्तविक हैं, केवल प्रातिभासिक और काल्पनिक नहीं हैं। द्रव्य स्वयं अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभावके कारण उन-उन पर्यायोंके रूपसे परिणत होता है। अतः एक द्रव्यमें अद्वैत होकर भी भेदकी स्थिति उतनी ही सत्य है जितनी कि अभेदकी। पर्यायें भी द्रव्यकी तरह वस्तुसत् हैं; क्योंकि वे उसकी पर्यायें हैं / यह ठीक है कि साधना करते समय योगीको ध्यान-कालमें ऐसी निर्विकल्प अवस्था प्राप्त हो सकती है, जिसमें जगत्के अनन्त भेद या स्वपर्यायगत भेद भी प्रतिभासित न होकर मात्र अद्वैत आत्माका साक्षात्कार हो, पर इतने मात्रसे जगत्की सत्ताका लोप नहीं किया जा सकता। ___'जगत क्षणभंगुर है, संसार स्वप्न है, मिथ्या है, गंधर्वनगरकी तरह प्रतिभासमात्र है' इत्यादि भावनाएँ हैं। इनसे चित्तको भावित करके उसकी प्रवृत्तिको जगतके विषयोंसे हटाकर आत्मलीन किया जाता है / भावनाओंसे तत्त्वकी व्यवस्था नहीं होती। उसके लिए तो सुनिश्चित कार्यकारणभावकी पद्धिति और तन्मूलक प्रयोग ही अपेक्षित होते हैं। जैनाचार्य भी अनित्य भावनामें संसारको मिथ्या और स्वप्नवत् असत्य कहते हैं। पर उसका प्रयोजन केवल वैराग्य और उपेक्षावत्तिको जागृत करना है / अतः भावनाओंके बलसे तत्त्वज्ञानके योग्य चित्तकी भूमिका तैयार होनेपर भी तत्त्वव्यवस्थामें उसके उपयोग करनेका मिथ्या क्रम छोड़ ही देना चाहिये / ___'एक ही ब्रह्मके सब अंश हैं, परस्परका भेद झूठा है, अतः सबको मिलकरके प्रेमपूर्वक रहना चाहिये' इस प्रकारके उदार उद्देश्यसे ब्रह्मवादके समर्थनका ढंग केवल औदार्यके प्रकारका कल्पित साधन हो सकता है। आजके भारतीय दार्शनिक यह कहते नहीं अघाते कि 'दर्शनकी चरम कल्पनाका विकास अद्वैतवादमें ही हो सकता है।' तो क्या दर्शन केवल कल्पनाकी दौड़ है ? यदि दर्शन मात्र कल्पनाकी सीमामें ही खेलना चाहता है, तो समझ लेना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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