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________________ 308 जैनदर्शन सत्तासे और परमाणुओंसे बने हुए विशिष्ट आकारवाले ठोस पदार्थोंकी सत्तासे इनकार नहीं किया जा सकता / स्वतन्त्र, वजनवाले और अपने गुणधर्मोके अखण्ड आधारभूत उन परमाणुओंके व्यक्तित्वका अभेदगामिनी दृष्टिके द्वारा विलय नहीं किया जा सकता। उन सबमें अभिन्न सत्ताका दर्शन ही काल्पनिक है। जैसे कि अपनी पृथक्-पृथक सत्ता रखनेवाले छात्रोंके समुदायमें सामाजिक भावनासे कल्पित किया गया एक 'छात्रमण्डल' मात्र व्यवहारसत्य है, वह समझ और समझौतेके अनुसार संगठित और विघटित भी किया जाता है, उसका विस्तार और संकोच भी होता है और अन्ततः उसका भावनाके सिवाय वास्तविक कोई ठोस अस्तित्व नहीं है, उसी तरह एक 'सत् सत् के आधारसे कल्पित किया गया अभेद अपनी सीमाओंमें संघटित और विघटित होता रहता है। इस एक सत्का ही अस्तित्व व्यावहारिक और प्रातिभासिक है, न कि अनन्त चेतन द्रव्यों और अनन्त अचेतन परमाणुओंका। असंख्य प्रयत्न करनेपर भी जगतके रंगमञ्चसे एक भी परमाणुका अस्तित्व नहीं मिटाया जा सकता / दृष्टिसृष्टि तो उस शतुर्मुर्ग जैसी बात है जो अपनी आँखोंको बन्द करके गर्दन नीची कर समझता है कि जगतमें कुछ नहीं है। अपनी आँखें खोलने या बन्द करनेसे जगतके अस्तित्व या नास्तित्वका कोई सम्बन्ध नहीं है। जाँखें बन्द करना और खोलना अप्रतिभास, प्रतिभास या विचित्र प्रतिभाससे सम्बन्ध रखता है, न कि विज्ञानसिद्ध कार्यकारणपरम्परासे प्रतिबद्ध पदार्थों के अस्तित्वसे / किसी स्वयंसिद्ध पदार्थमें विभिन्न रागी, द्वेषी और मोही पुरुषों के द्वारा की जानेवाली इष्ट-अनिष्ट, अच्छी-बुरी, हित-अहित आदि कल्पनाएँ भले ही दृष्टि-सृष्टिकी सीमामें आवें और उनका अस्तित्व उस व्यक्तिके प्रतिभास तक ही सीमित हो और व्यावहारिक हो, पर उस पदार्थका और उसके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि वास्तविक गुण-धर्मोंका अस्तित्व अपना स्वयं है, किसीकी दृष्टिने उनकी सृष्टि नहीं की है और न किसीकी वासना या रागसे उनकी उत्पत्ति हुई है। भेद वस्तुओंमें स्वाभाविक है। वह न केवल मनुष्योंको ही, किन्तु संसारके प्रत्येक प्राणीको अपने-अपने प्रत्यक्षज्ञानोंमें स्वतः प्रतिभासित होता है। अनन्त प्रकारके विरुद्धधर्माध्यासोंसे सिद्ध देश, काल और आकारकृत भेद पदार्थोके निजी स्वरूप हैं। बल्कि चरम अभेद ही कल्पनाका विषय है। उसका पता तब तक नहीं लगता जबतक कोई व्यक्ति उसकी सीमा और परिभाषाको न समझा दे। अभेदमूलक संगठन बनते और बिगड़ते हैं, जब कि भेद अपनी स्थिरभूमिपर जैसा है, वैसा ही रहता है, न वह बनता है और न वह बिगड़ता है / For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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