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________________ प्रमाणमीमांसा यद्यपि 'आत्मश्रवण, मनन और ध्यानादि भी भेदरूप होनेके कारण अविद्यात्मक है, फिर भी उनसे विद्याकी प्राप्ति संभव है। जैसे धूलिसे गंदले पानीमें कतकफल या फिटकरीका चूर्ण, जो कि स्वयं भी धूलिरूप ही है, डालनेपर एक धूलि दूसरी धूलिको शान्त कर देती है और स्वयं भी शान्त होकर जलको स्वच्छ अवस्थामें पहुँचा देती है। अथवा जैसे एक विष दूसरे विषको नाशकर निरोग अवस्थाको प्राप्त करा देता है, उसी तरह आत्मश्रवण, मनन आदिरूप अविद्या भी राग-द्वेष-मोह आदिरूप मूल-अविद्याको नष्ट कर स्वगतभेदके शान्त होनेपर निर्विकल्प स्वरूपावस्था प्राप्त हो जाती है। अतात्त्विक अनादिकालीन अविद्याके उच्छेदके लिए ही मुमुक्षुओंका प्रयत्न होता है / यह अविद्या तत्त्वज्ञानका प्रागभाव है / अतः अनादि होनेपर भी उसकी निवृत्ति उसी तरह हो जाती है जिस प्रकार कि घटदि कार्योंकी उत्पत्ति होनेपर उनके प्रागभावोंकी / ___ इस ब्रह्मका ग्राहक सन्मात्रग्राही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है। वह मूक बच्चोंके ज्ञानकी तरह शुद्ध वस्तुजन्य और शब्दसम्पर्कसे शन्य निर्विकल्प होता है। 'अविद्या ब्रह्मसे भिन्न है या अभिन्न' इत्यादि विचार भी अप्रस्तुत हैं, क्योंकि ये विचार वस्तुस्पर्शी होते हैं और अविद्या है अवस्तु / किसी भी विचारको सहन नहीं करना ही अविद्याका अविद्यात्व है। जैनका उत्तरपक्ष : किन्तु, प्रत्यक्षसिद्ध ठोस और तात्त्विक जड़ और चेतन पदार्थोंका मात्र अविद्याके हवाई प्रहारसे निषेध नहीं किया जा सकता / विज्ञानको प्रयोगशालाओंने अनन्त जड़ परमाणुओंका पृथक् तात्त्विक अस्तित्व सिद्ध किया ही है। तुम्हारा कल्पित ब्रह्म ही उन तथ्य और सत्यसाधक प्रयोगशालाओंमें सिद्ध नहीं हो सका है। यह ठीक है कि हम अपनी शब्दसंकेतकी वासनाके अनुसार किसी परमाणुसमुदायको घट, घड़ा, कलश आदि अनेक शब्दसंकेतोंसे व्यक्त करें और इस व्यक्तिकरणकी अपनी सीमित मर्यादा भी हो, पर इतने मात्रसे उन परमाणुओंकी 1. 'यथा पयो पयोऽन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यति; यथा विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति, यथा बा कतकर जो रजोऽन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्तं रजोऽन्तराणि भिन्दत् स्वयपि भिद्यमानमनाविलं पाथः करोति, एवं कर्म अविद्यात्मकपि अविद्यान्तराणि अपगमयत् स्वयमप्यपगच्छतीति / ' -ब्रह्मसू० शां० भा० भा० पृ० 32 / 2. 'अविद्याया अविद्यात्वे इदमेव च लक्षणम् / मानाघातासहिष्णुत्वमसाधारणमिष्यते ॥'-सम्बन्धवा० का० 181 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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