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________________ 306 जैनदर्शन ब्रह्मवादविचार : वेदान्तीका पूर्वपक्ष : वेदान्ती जगतमें केवल एक ब्रह्मको ही सत् मानते हैं। वह कूटस्थ नित्य और अपरिवर्तनशील है। वह सत् रूप है / 'है' यह अस्तित्व ही उस महासत्ताका सबसे प्रबल साधक प्रमाण है। चेतन और अचेतन जितने भी भेद हैं, वे सब इस ब्रह्मके प्रतिभासमात्र हैं / उनकी सत्ता प्रातिभासिक या व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं। जैसे एक अगाध समुद्र वायुके वेगसे अनेक प्रकारकी बीची, तरंग, फेन, बुबुद आदि रूपोंमें प्रतिभासित होता है, उसी तरह एक सत् ब्रह्म अविद्या या मायाकी वजहसे अनेक जड़-चेतन, जीवात्मा-परमात्मा और धट-पट आदि रूपसे प्रतिभासित होता है। यह तो दृष्टि-सृष्टि है / अविद्याके कारण अपनी पृथक् सत्ता अनुभव करनेवाला प्राणी अविद्यामें ही बैठकर अपने संस्कार और वासनाओंके अनुसार जगतको अनेक प्रकारके भेद और प्रपञ्चके रूपमें देखता है। एक ही पदार्थ अनेक प्राणियोंको अपनी-अपनी वासना-दूषित दृष्टिके अनुसार विभिन्न रूपोंमें दिखाई देता है। अविद्याके हट जानेपर सत्, चित् और आनन्दरूप ब्रह्ममें लय हो जानेपर समस्त प्रपंचोंसे रहित निर्विकल्प ब्रह्म-स्थिति प्राप्त होती है / जिस प्रकार विशुद्ध आकाशको तिमिररोगी अनेक प्रकारकी चित्र-विचित्र रेखाओंसे खचित और चित्रित देखता है, उसी तरह अविद्या या मायाके कारण एक ही ब्रह्म अनेक होता है / जो भी जगतमें था, है और होगा वह सब ब्रह्म ही है। यही ब्रह्म समस्त विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयमें उसी तरह कारण होता है, जिस प्रकार मकड़ी अपने जालके लिए, चन्द्रकान्तमणि जलके लिए और वट वृक्ष अपने प्ररोहोंके लिए कारण होता है। जितना भी भेद है, वह सब अतात्त्विक और झूठा है। 1. 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' -छान्दो० 3 / 14 / 1 / / 2. 'यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः / संकीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिरभिमन्यते // तथेदममलं ब्रह्म निर्विकारमविद्यया / कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रपश्यति // ' -बृहदा० भा० वा०३५। 43-44 / 3. 'यथोर्णनाभिः सृजते गृहृते च ..'-मुण्डकोप० 1117 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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