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________________ प्रमाणमीमांसा प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम हैं, परोक्षप्रमाणमें अन्तर्भाव करके प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही भेद स्वीकार करना चाहिये / इनके अवान्तर भेद भी प्रतिभासभेद और आवश्यकताके आधारसे ही किये जाने चाहिये। विषयाभास: एक ही सामान्यविशेषात्मक पदार्थ प्रमाणका विषय है, यह पहले बताया जा चुका है। यदि केवल सामान्य, केवल विशेष या सामान्य और विशेष दोनोंको स्वतन्त्र-स्वतन्त्ररूपमें प्रमाणका विषय माना जाता है, तो ये सब विषयाभास है, क्योंकि पदार्थकी स्थिति सामान्यविशेषात्मक और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकरूपमें ही उपलब्ध होती है। पूर्वपर्यायका त्याग, उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति और द्रव्यरूपसे स्थिति इस त्रयात्मकताके बिना पदार्थ कोई भी अर्थक्रिया नहीं कर सकता। लोकव्यवस्था' आदि प्रकरणोंमें हम इसका विस्तारसे वर्णन कर आये हैं। यदि सर्वथा नित्य सामान्य आदिरूप पदार्थ अर्थक्रियाकारी हों, तो समर्थके लिए कारणान्तरोंकी अपेक्षा न होनेसे समस्त कार्योंकी उत्पत्ति एकसाथ हो जानी चाहिये। और यदि असमर्थ हैं, तो कार्योत्पत्ति बिलकुल ही नहीं होनी चाहिये / 'सहकारी कारणोंके मिलनेपर कार्योत्पत्ति होती है' इसका सीधा अर्थ है कि सहकारी उस कारणकी असामर्थ्यको हटाकर सामर्थ्य उत्पन्न करते हैं और इस तरह वह उत्पाद और व्ययका आधार बन जाता है। सर्वथा क्षणिक पदार्थमें देशकृत क्रम न होनेके कारण कार्यकारणभाव और क्रमिक कार्योत्पत्तिका निर्वाह नहीं हो सकता। पूर्वका उत्तरके साथ कोई वास्तविक स्थिर सम्बन्ध न होनेसे कार्यकारणभावमूलक समस्त जगतके व्यवहारोंका उच्छेद हो जायगा। बद्धको ही मोक्ष तो तब हो सकता है जब एक ही अनुस्यूत चित्त प्रथम बँधे और वही छूटे / हिंसकको ही पापका फल भोगनेका अवसर तब आ सकता है, जब हिंसाक्रियासे लेकर फल भोगने तक उसका वास्तविक अस्तित्व और परस्पर सम्बन्ध हो / __इन विषयामासोंमें ब्रह्मवाद और शब्दाद्वैतवाद नित्य पदार्थका प्रतिनिधित्व करनेवाली उपनिषद्धारासे निकले हैं। सांख्यका एक प्रधान अर्थात् प्रकृतिवाद भी केवल सामान्यवादमें आता है / प्रतिक्षण पदार्थोंका विनाश मानना और परस्पर विशकलित क्षणिक परमाणुओंका पुञ्ज मानना केवल विशेषवादमें सम्मिलित है / तथा सामान्यको स्वतन्त्र पदार्थ और द्रव्य, गुण, कर्म आदि विशेषोंको पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ मानना परस्पर-निरपेक्ष उभयवादमें शामिल है। 1. विषयामासः सामान्यं विशेषो द्वयं बा स्वतन्त्रम्' / -~-परीक्षामुख 661-65 / 20 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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