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________________ 304 जैनदर्शन बालप्रयोगाभास' : ___ यह पहले बताया जा चुका है कि उदाहरण, उपनय और निगमन बालबुद्धि शिष्योंके समझानेके लिए अनुमानके अवयवरूपमें स्वीकार किये गये हैं। जो अधिकारी जितने अवयवोंसे समझते हैं, उनके लिये उनसे कमका प्रयोग बालप्रयोगाभास होगा। क्योंकि जिन्हें जितने वाक्यसे समझनेकी आदत पड़ी हुई है, उन्हें उससे कमका बोलना अटपटा लगेगा और उन्हें उतने मात्रसे स्पष्ट अर्थबोध भी नहीं हो सकेगा। आगमाभास : राग, द्वेष और मोहसे युक्त अप्रामाणिक पुरुषके वचनोंसे होनेवाला ज्ञान आगमाभास है / जैसे—कोई पुरुष बच्चोंके उपद्रवसे तंग आकर उन्हें भगानेकी इच्छासे कहे कि 'बच्चो, नदीके किनारे लड्डू बट रहे हैं दौड़ो।' इसी प्रकारके राग-द्वेष-मोहप्रयुक्त वाक्म आगमाभास कहे जाते हैं / सख्याभास : मुख्यरूपसे प्रमाणके दो भेद किये गये हैं-एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष / इसका उल्लंघन करना अर्थात् एक, या तीन आदि प्रमाण मानना संख्याभास है; क्योंकि एक प्रमाण मानने पर चार्वाक प्रत्यक्षसे ही परलोकादिका निषेध, परबुद्धि आदिका ज्ञान, यहाँ तक कि स्वयं प्रत्यक्षकी प्रमाणताका समर्थन भी नहीं कर सकता। इन कार्योंके लिए उसे अनुमान मानना ही पड़ेगा। इसी तरह बौद्ध, सांख्य, नैयायिक, प्राभाकर और जैमिनीय अपने द्वारा स्वीकृत दो, तीन, चार, पाँच और छह प्रमाणोंसे व्याप्तिका ज्ञान नहीं कर सकते / उन्हें व्याप्तिग्राही तर्कको स्वतन्त्र प्रमाण मानना ही चाहिये। इस तरह तर्कको अतिरिक्त प्रमाण मानने पर उनकी निश्चित प्रमाण-संख्या बिगड़ जाती है / नैयायिकके उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमे, प्रभाकरकी अर्थापत्तिका अनुमानमें और जैमिनीयके अभाव प्रमाणका यथासम्भव प्रत्यक्षादि प्रमाणोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। अतः यावत् विशदज्ञानोंका, जिनमें एकदेशविशद इन्द्रिय और मानस प्रत्यक्ष भी शामिल हैं, प्रत्यक्षप्रमाणमें, तथा समस्त अविशदज्ञानोंका, जिनमें स्मरण, 1. परीक्षामुख]६ // 46-50 / 2. परीक्षामुख 6 / 51-54 / 3. परीक्षामुख 6155-60 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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