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________________ जैनदर्शन अवान्तर दो भेद और भी दिखाये गये हैं / अतः दिङ्नागके मतसे बारह दृष्टान्ताभास फलित होते हैं। वैशेषिकको भो बारह निदर्शनाभास ही इष्ट हैं / आचार्य धर्मकीर्तिने दिनागके मूल दस भेदोंमें सन्दिग्धसाध्यान्वय, सन्दिग्धसाधनान्वय, सन्दिग्धउभयान्वय और अप्रदर्शितान्वय ये चार साधर्म्यदृष्टान्ताभास तथा सन्दिग्धसाध्यव्यतिरेक, सन्दिग्धसाधनव्यतिरेक, सन्दिग्धोभयव्यतिरेक और अप्रदर्शितव्यतिरेक इन चार वैधर्म्यदृष्टान्ताभासोंको मिलाकर कुल अठारह दृष्टान्ताभास बतलाये हैं। ___ न्यायावतार ( श्लो० 24-25 ) में आ० सिद्धसेनने 'साध्यादिविकल तथा संशय' शब्द देकर लगभग धर्मकीर्तिसम्मत विस्तारको ओर ही संकेत किया है / आचार्य माणिक्यनन्दि ( परीक्षामुख 4 / 40-45 ) असिद्धसाध्य, असिद्ध-साधन, असिद्धोभय तथा विपरीतान्वय ये चार साधर्म्य दृष्टान्ताभास तथा चार ही वैधर्म्य दृष्टान्ताभास इस तरह कुछ आठ दृष्टान्ताभास मानते हैं। इन्होंने 'असिद्ध' शब्दसे अभाव और संशय दोनोंको ले लिया है / इतने अनन्वय और अप्रदर्शितान्वयको भी दृष्टान्त-दोषोंमें शामिल नहीं किया है। वादिदेवसूरि ( प्रमाणनय० 6 / 60-79 ) धर्मकीर्तिकी तरह अठारह ही दृष्टान्ताभास मानते हैं / आचार्य हेमचन्द्र (प्रमाणमी० 2 / 1 / 22-27) अनन्वय और अव्यतिरेकको स्वतन्त्र दोष नहीं मानकर दृष्टान्ताभासोंकी संख्या सोलह निर्धारित करते हैं / परीक्षामुखके अनुसार आठ दृष्टान्ताभास इस प्रकार हैं : 'शब्द अपौरुषेय है, अमूर्तिक होनेसे' इस अनुमानमें इन्द्रियसुख, परमाणु और घट ये दृष्टान्त क्रमशः असिद्धसाध्य, असिद्ध साधन और असिद्धोभय हैं, क्योंकि इन्द्रियसुख पौरुषेय है, परमाणु मूर्तिक है तथा घड़ा पौरुषेय भी है और मूर्तिक भी है। 'जो अमूर्तिक हैं, वह अपौरुषेय है' ऐसा अन्वय मिलाना चाहिये, परन्तु 'जो अपौरुषेय है वह अमूर्तिक है' ऐसा विपरीतान्वय मिलाना दृष्टान्ताभास है, क्योंकि विजली आदि अपौरुषेय होकर भी अमूर्तिक नहीं है। उक्त अनुमानमें परमाण, इन्द्रियसुख और आकाशका दृष्टान्त क्रमशः असिद्धसाध्यव्यतिरेक, असिद्ध-साधनव्यतिरेक और असिद्धोभय-व्यतिरेक है, क्योंकि परमाणु अपौरुषेय है, इन्द्रियसुख अमूर्तिक है, और आकाश अपौरुषेय और अमूर्लिक दोनों है। अतः इनमें उन-उन धर्मोका व्यतिरेक असिद्ध है / 'जो अपौरुषेय नहीं हैं, वे अमूर्तिक नहीं है' ऐसा साध्याभावमें साधनाभावरूप व्यतिरेक दिखाया जाना चाहिये परन्तु 'जो अमूर्तिक नहीं है, वह अपौरुषेय नहीं है' इस प्रकारका उलटा व्यतिरेक दिखाना विपरीत 1. प्रश० भा०पृ० 247 / 2. न्यायबि० 311251-136 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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