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________________ प्रमाणमीमांसा 301 ( 4 ) अकिञ्चित्कर'-सिद्ध साध्यमें और प्रत्यक्षादिबाधित साध्यमें प्रयुक्त होनेवाला हेतु अकिश्चित्कर है। सिद्ध और प्रत्यक्षादि बाधित साध्यके उदाहरण पक्षाभासके प्रकरणमें दिये जा चुके हैं। अन्यथानुपपत्तिसे रहित जितने भी त्रिलक्षण हेतु हैं, वे सब अकिञ्चित्कर हैं। ____ अकिञ्चित्कर हेत्वाभासका निर्देश जैनदार्शनिकोंमें सर्वप्रथम अकलंकदेवने किया है, परन्तु उनका अभिप्राय इसे स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेके विषयमें सुदृढ़ नहीं मालूम होता / वे एक जगह लिखते हैं कि सामान्यसे एक असिद्ध हेत्वाभास है। वही विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्धके भेदसे अनेक प्रकारका होता है। ये विरुद्धादि अकिञ्चित्करके विस्तार हैं / फिर लिखते हैं कि अन्यथानुपपत्तिसे रहित जितने त्रिलक्षण हैं, उन्हें अकिञ्चित्कर कहना चाहिये। इससे मालूम होता है कि वे सामान्यसे हेत्वाभासोंकी अकिञ्चित्कर या असिद्ध संज्ञा रखते थे। इसे स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेका उनका प्रबल आग्रह नहीं था। यही कारण है कि आचार्य २माणिक्यनन्दिने अकिञ्चित्कर हेत्वाभासका लक्षण और भेद कर चुकने पर भी लिखा है कि 'इस अकिञ्चित्कर हेत्वाभासका विचार हेत्वाभासके लक्षणकालमें ही करना चाहिये / शास्त्रार्थके समय तो इसका कार्य पक्षदोषसे ही किया जा सकता है।' आचार्य विद्यानन्दने भी सामान्य रूपसे एक हेत्वाभास कहकर असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिकको उसीका रूपान्तर माना है। उनने भी अकिञ्चित्कर हेत्वाभासके ऊपर भार नहीं दिया है। वादिदेवसूरि आदि आचार्य भी हेत्वाभासके असिद्ध आदि तीन भेद ही मानते हैं। दृष्टान्ताभास : ___ व्याप्तिकी सम्प्रतिपत्तिका स्थान दृष्टान्त कहलाता है / दृष्टान्तमें साध्य और साधनका निर्णय होना आवश्यक है / जो दृष्टान्त इस दृष्टान्तके लक्षणसे रहित हो, किन्तु दृष्टान्तके स्थानमें उपस्थित किया गया हो, वह दृष्टान्ताभास है / दिङनागके न्यायप्रवेश (पृ० 5-6) में दृष्टान्ताभासके साधनधर्मासिद्ध, साध्यधर्मासिद्ध; अनन्वय, उभयधर्मासिद्ध विपरीतान्वय ये पाँच साधर्म्यदृष्टान्ताभास तथा साध्याव्यावृत्त, साधनाव्यावृत्त, उभयाव्यावृत्त, अव्यतिरेक और विपरीतव्यतिरेक ये पाँच वैधर्म्य दृष्टान्ताभास इस तरह दस दृष्टान्ताभास बताये हैं / इनमें उभयासिद्ध नामक दृष्टान्ताभासके 1. 'सिद्धेऽकिञ्चित्करोऽखिलः ।"-प्रमाणसं० श्लो० 49 / ___ "सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः।"-परीक्षामुख 6 / 35 / 2. "लक्षण एवासौ दोषः व्युत्पन्न प्रयोगरय पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् / " -परीक्षामुख 6639 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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