SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन जब तक प्रमाणके द्वारा अपने हेतुको प्रतिबादीके लिए सिद्ध नहीं कर देता, तबतक वह अन्तरासिद्ध कहा जा सकता है। (2) विरुद्ध-"अन्यथाभावात्' (प्रमाणसं० श्लो० 48 ) साध्याभावमें पाया जाने वाला। जैसे–'सब क्षणिक हैं सत् होनेसे' यहाँ सत्त्व हेतु सर्वथा क्षणिकत्वके विपक्षी कथञ्चित् क्षणिकत्वमें पाया जाता है। न्यायसार (पृ० 8 ) में विद्यमानसपक्षवाले चार विरुद्ध तथा अविद्यमानसपक्षवाले चार विरुद्ध इस तरह जिन आठ विरुद्धोंका वर्णन है, वे सब विपक्षमें अविनाभाव पाये जानेके कारण ही विरुद्ध हैं। हेतुका सपक्षमें होना कोई आवश्यक नहीं है। अतः सपक्षसत्त्वके अभावको विरुद्धताका नियामक नहीं मान सकते / किन्तु विपक्षके साथ उसके अविनाभावका निश्चित होना ही विरुद्धताका आधार है। दिङ्नाग आचार्यने विरुद्धाव्यभिचारी नामका भी एक हेत्वाभास माना है / परस्परविरोधी दो हेतुओंका एक धर्मीमें प्रयोग होने पर प्रथम हेतु विरुद्धाव्यभिचारी हो जाता है / यह संशयहेतु होनेसे हेत्वाभास है / धर्मकीति'ने इसे हेत्वाभास नहीं माना है। वे लिखते हैं कि जिस हेतुका रूप्य प्रमाणसे प्रसिद्ध है, उसमें विरोधी हेतुका अवसर ही नहीं है / अतः यह आगमाश्रित हेतुके विषयमें ही संभव हो सकता है / शास्त्र अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रतिपादन करता है, अतः उसमें एक ही वस्तु परस्परविरोधी रूपमें वर्णित हो सकती है। अकलंकदेवने इस हेत्वाभासका विरुद्धमें अन्तर्भाव किया है / जो हेतु विरुद्धका अव्यभिचारी-विपक्षमें भी रहने वाला है, वह विरुद्ध हेत्वाभास की ही सीमामें आता है। (3 ) अनैकान्तिक-"व्यभिचारी विपक्षेऽपि'' ( प्रमाणसं० श्लो० 49 )विपक्षमें भी पाया जानेवाला / यह दो प्रकारका है। एक निश्चितानैकान्तिक'जैसे शब्द अनित्य है, क्योंकि वह प्रमेय है, घटकी तरह / ' यहाँ प्रमेयत्व हेतुका विपक्षभूत नित्य आकाशमें पाया जाना निश्चित है / दूसरा सन्दिग्धानकान्तिकजैसे सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है, रथ्यापुरुषकी तरह।' यहाँ विपक्षभूत सर्वज्ञके साथ वक्तृत्वका कोई विरोध न होनेसे वक्तृत्वहेतु सन्दिग्धानकान्तिक है। - न्यायसार ( पृ० 10 ) आदिमें इसके जिन पक्षत्रयव्यापक, सपक्षविपक्षकदेशवृत्ति आदि आठ भेदोंका वर्णन है, वे सब इसीमें अन्तर्भूत हैं। अकलंकदेवने इस हेत्वाभासके लिए सन्दिग्ध शब्दका प्रयोग किया है। 1. ननु च आचार्येण विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः स इह नोक्तः, अनुमानविषयेऽसंभ वात् / " न्यायबि० 3.112,113 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy