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________________ प्रमाणमीमांसा 299 संख्याका कोई आग्रह नहीं है, फिर भी उनने जिन चार हेत्वाभासोंका निर्देश किया है, उनके लक्षण इस प्रकार हैं : (1) असिद्ध-"सर्वथात्ययात्" (प्रमाणसं० श्लो० 48) सर्वथा पक्षमें न पाया जानेवाला अथवा जिसका साध्यके साथ सर्वथा अविनाभाव न हो / जैसे'शब्द अनित्य है, चाक्षुष होनेसे / ' असिद्ध दो प्रकारका है। एक अविद्यमानसत्ताक -~~-अर्थात् स्वरूपासिद्ध और दूसरा अविद्यमाननिश्चय-अर्थात् सन्दिग्धासिद्ध / अविद्यमानसत्ताक-जैसे शब्द परिणामी है; क्योंकि वह चाक्षुष है। इस अनुमानमें चाक्षुषत्व हेतु शब्दमें स्वरूपसे ही असिद्ध है। अविद्यमाननिश्चय-मूर्ख व्यक्ति धूम और भाफका विवेक नहीं करके जब बटलोईसे निकलनेवाली भाफको धुआँ मानकर, उसमें अग्निका अनुमान करता है, तो वह सन्दिग्धासिद्ध होता है / अथवा, सांख्य यदि शब्दको परिणामी सिद्ध करनेके लिये कृतकत्व हेतुका प्रयोग करता है तो वह भी सन्दिग्धासिद्ध है, क्योंकि सांख्यके मतमें आविर्भाव और तिरोभाव शब्द ही प्रसिद्ध हैं, कृतकत्व नहीं। न्यायसार (पृ० 8) आदिमें विशेष्यासिद्ध, विशेषणासिद्ध, आश्रयासिद्ध, आश्रयैकदेशासिद्ध, व्यर्थविशेष्यासिद्ध, व्यर्थविशेषणासिद्ध, व्यधिकरणासिद्ध और भागासिद्ध इन असिद्धके आठ भेदोंका वर्णन है। उनमें व्यर्थविशेषण तक के छह भेद उन रूपोंसे सत्ताके अविद्यमान होनेके कारण स्वरूपासिद्धमें ही अन्तर्भूत हो जाते हैं / भागासिद्ध यह है----'शब्द अनित्य है, क्योंकि वह प्रयत्लका अविनाभावी है। चूंकि इसमें अविनाभाव पाया जाता है, अतः यह सच्चा हेतु है। हाँ, यह अवश्य है कि जितने शब्दोंमें वह पाया जायगा, उतनेमें ही अनित्यत्व सिद्ध करेगा। जो शब्द प्रयत्नानन्तरीयक होंगे वे तो अनित्य होंगे ही। व्यधिकरणासिद्ध भी असिद्ध हेत्वाभासमें नहीं गिनाया जाना चाहिये; क्योंकि-'एक मुहूर्त बाद शटकका उदय होगा, इस समय कृत्तिकाका उदय होनेसे', 'ऊपर मेघवृष्टि हुई है, नीचे नदीपूर देखा जाता है' इत्यादि हेतु भिन्नाधिकरण हो करके भी अविनाभावके कारण सच्चे हेतु हैं। गम्यगमकभावका आधार अविनाभाव है, न कि भिन्न-अधिकरणता या अभिन्नाधिकरणता / 'अविद्यमानसत्ताक'का अर्थ-'पक्षमें सत्ताका न पाया जाना' नहीं है, किन्तु साध्य, दृष्टान्त या दोनोंके साथ जिसकी अविनाभाविनी सत्ता न पायी जाय उसे अविद्यमानसत्ताक कहते हैं। ___ इसी तरह सन्दिग्धविशेष्यासिद्ध आदिका सन्दिग्धासिद्धमें ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए / ये असिद्ध कुछ अन्यतरासिद्ध और कुछ उभयासिद्ध होते हैं। वादी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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