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________________ 298 जैनदर्शन है और गोमांस अपवित्र / इसी तरह अनेक प्रकारके लौकिक पवित्रापवित्र व्यवहार चलते हैं / 'मेरी माता बन्ध्या है; क्योंकि उसे पुरुषसंयोग होनेपर भी गर्भ नहीं रहता, जैसे-कि प्रसिद्ध बन्ध्या।' यहाँ मेरी माताका बन्ध्यापन स्ववचनबाधित है। यदि बन्ध्या है, तो मेरी माता कैसे हुई ? ये सब पक्षाभास हैं / हेत्वाभास : ___ जो हेतुके लक्षणसे रहित हैं, पर हेतुके समान मालूम होते हैं वे हेत्वाभास हैं। वस्तुतः इन्हें साधनके दोष होनेसे साधनाभास कहना चाहिए; क्योंकि निर्दुष्ट साधनमें इन दोषोंकी सम्भावना नहीं होती / साधन और हेतुमें वाच्य-वाचकका भेद है / साधनके वचनको हेतु कहते हैं, अतः उपचारसे साधनके दोषोंको हेतुका दोष मानकर हेत्वाभास संज्ञा दे दी गई है / नैयायिक हेतुके पाँच रूप मानते हैं, अतः वे एक-एक रूपके अभावमें असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट और प्रकरणसम ये पाँच हेत्वाभास स्वीकार करते हैं। बौद्धों ने हेतुको त्रिरूप माना है, अतः उनके मतसे पक्षधर्मत्वके अभावमें असिद्ध, सपक्षसत्त्वके अभावमें विरुद्ध और विपक्षासत्त्वके अभावमें अनैकान्तिक इस तरह तीन हेत्वाभास होते हैं। कणाद-सूत्र ( 3 / 1 / 15 ) में असिद्ध, विरुद्ध और सन्दिग्ध इन तीन हेत्वाभासोंका निर्देश होनेपर भी भाष्यमें अनध्यवसित नामके चौथे हेत्वाभासका भी कथन है। ___ जैन दार्शनिकोंमें आचार्य सिद्धसेनने ( न्यायावतार श्लो० 23 ) असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक इन तीन हेत्वाभासोंको गिनाया है। अकलंकदेवने अव्यथानुपपन्नत्वको ही जब हेतुका एकमात्र नियामक रूप माना है तब स्वभावतः इनके मतसे अन्यथानुपपन्नत्वके अभावमें एक ही हेत्वाभास हो सकता है / वे स्वयं लिखते हैं कि वस्तुतः एक ही असिद्ध हेत्वाभास है / 'अन्यथानुपपत्ति' का अभाव चूंकि कई प्रकारसे होता है, अतः विरुद्ध, असिद्ध, सन्दिग्ध और अकिञ्चित्करके भेदसे चार हेत्वाभास भी हो सकते हैं। एक जगह तो उन्होंने विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्धको अकिञ्चित्करका विस्तार मात्र बताया है। इनके मतसे हेत्वाभासोंकी 1. न्यायसार पृ० 7 // 2. न्यायवि० 357 / 3. “अन्यथासंभवाभावभेदात् स बहुधा स्मृतः / विरुद्धासिद्धसन्दिग्धैरकिञ्चित्करविस्तरैः ॥"-न्यायवि० 2 / 195 / 4. “अकिञ्चित्कारकान् सर्वान् तान् वयं संगिरामहे।" -न्यायवि० 2 / 370 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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