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________________ 296 जैनदर्शन बात, सो साधकतमत्वके विचारमें उसका कोई मूल्य नहीं है / ज्ञान होकर भी जो संव्यवहारोपयोगी नहीं हैं या अकिञ्चित्कर हैं वे सब प्रमाणाभासकोटिमें शामिल हैं / प्रत्यक्षाभास : 'अविशद ज्ञानको प्रत्यक्ष कहना प्रत्यक्षाभास है, जैसे कि प्रज्ञाकर गुप्त अकस्मात् धुआँको देखकर होनेवाले वह्निविज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं / भले ही यहाँ पहलेसे व्याप्ति गृहीत न हो और तात्कालिक प्रतिभा आदिसे वह्निका प्रतिभास हो गया हो, किन्तु वह प्रतिभास धूमदर्शनकी तरह विशद तो नहीं है, अतः उस अविशद ज्ञानको प्रत्यक्ष-कोटिमें शामिल नहीं किया जा सकता। वह प्रत्यक्षाभास ही है। परोक्षाभास : ___ २विशद ज्ञानको भी परोक्ष कहना परोक्षाभास है / जैसे मीमांसक करणज्ञानको अपने स्वरूपमें विशद होते हुए भी परोक्ष मानता है। यह कहा जा चुका है कि अप्रत्यक्षज्ञानके द्वारा पुरुषान्तरके ज्ञानकी तरह अर्थोपलब्धि नहीं की जा सकती। अतः ज्ञानमात्रको चाहे वह सम्यग्ज्ञान हो या मिथ्याज्ञान, स्वसंवेदी मानना ही चाहिए। जो भी ज्ञान उत्पन्न होता है, वह स्वप्रकाश करता हुआ ही उत्पन्न होता है। ऐसा नहीं है कि घटादिकी तरह ज्ञान अज्ञात रहकर ही उत्पन्न हो जाय / अतः मीमांसकका उसे परोक्ष कहना परोक्षाभास है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास : ___ बादलोंमें गंधर्वनगरका ज्ञान और दुःखमेसु खका ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास है। मुख्य प्रत्यक्षाभास : इसी तरह अवधिज्ञानमें मिथ्यात्वके सम्पर्कसे विभंगावधिपना आता है। वह मुख्यप्रत्यक्षाभास कहा जायगा। मनःपर्यय और केवलज्ञान सम्यग्दृष्टिके ही होते हैं, अतः उनमें विपर्यासकी किसी भी तरह सम्भावना नहीं है। स्मरणाभास : अतत्में तत्का, या तत्में अतत्का स्मरण करना स्मरणाभास है। जैसे जिनदत्तमें 'वह देवदत्त' ऐसा स्मरण स्मरणाभास है। 1. परीक्षामुख 6 / 3 / 2. परीक्षामुख 67 / 3. परीक्षामुख 68 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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