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________________ प्रमाणमीमांसा 293 प्रमाणव्यवहार प्रारम्भ होना चाहिये, न कि इन्द्रियसे / अन्धकारनिवृत्तिके लिए अन्धकारविरोधी प्रकाश ही ढूँढ़ा जाता है न कि तदविरोधी घट, पट, आदि पदार्थ। इन्हीं परम्पराओंको उपनिषदोंमें यद्यपि तत्त्वज्ञानका चरम फल निःश्रेयस भी बताया गया है, परन्तु तर्कयुगमें उसकी प्रमुखता नहीं रही। बौद्ध परम्पराकी सौत्रान्तिक शाखामें बाह्य अर्थका अस्तित्व स्वीकार किया गया है, इसलिए वे ज्ञानगत अर्थाकारता या सारूप्यको प्रमाण मानते हैं और विषयके अधिगमको प्रमाणका फल / ये सारूप्य और अधिगम दोनों ज्ञानके ही धर्म हैं / एक ही ज्ञान जिस क्षणमें व्यवस्थापनहेतु होनेसे प्रमाण कहलाता है वही उसी क्षणमें व्यवस्थाप्य होनेसे फल नाम पा जाता है। यद्यपि ज्ञान निरंश है, अतः उसमें उक्त दो अंश पृथक् नहीं होते, फिर भी अन्यव्यावृत्तिकी अपेक्षा ( असारूप्यव्यावृत्तिसे सारूप्य, और अनधिगमव्यावृत्तिसे अधिगम ) दो व्यवहार हो जाते हैं / विज्ञानवादी बौद्धोंके मतमें बाह्य अर्थका अस्तित्व न होनेसे ज्ञानगत योग्यता ही प्रमाण मानी जाती है और स्वसंवेदन फल / एक ही ज्ञानकी सव्यापार प्रतीति होनेसे उसीमें प्रमाण और फल ये दो पृथक् व्यवहार व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापकका भेद मानकर कर लिये जाते हैं / वस्तुतः ज्ञान तो निरंश है, उसमें उक्त भेद है ही नहीं। प्रमाण और फलका भेदाभेद : जैन परम्परामें चूंकि एक ही आत्मा प्रमाण और फल दोनों रूपसे परिणति करता है, अतः प्रमाण और फल अभिन्न माने गये हैं, तथा कार्य और कारणरूपसे क्षणभेद और पर्यायभेद होनेके कारण वे भिन्न हैं / बौद्धपरम्परामें आत्माका अस्तित्व न होनेसे एक ही ज्ञानक्षणमें व्यावृत्तिभेदसे भेदव्यवहार होनेपर भी वस्तुतः प्रमाण और फलमें अभेद ही माना जा सकता है / नैयायिक आदि इन्द्रिय और सन्निकर्षको प्रमाण माननेके कारण फलभूत ज्ञानको प्रमाणसे भिन्न ही मानते हैं / इस भेदाभेदविषयक चर्चामें जैन परम्पराने अनेकान्तदृष्टिका ही उपयोग किया है और द्रव्य तथा पर्याय दोनोंको सामने रखकर प्रमाणफलभाव घटाया है। आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेनने अज्ञाननिवृत्ति, हान, उपादान और उपेक्षाबुद्धिको ही प्रमाणका फल बताया और अकलंकदेवने पूर्व-पूर्व ज्ञानोंको प्रमाण और उत्तर-उत्तर ज्ञानोंको फल कहकर एक ही ज्ञानमें अपेक्षाभेदसे प्रमाणरूपता और फलरूपताका भी समर्थन किया है। 1. “विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते। स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥"-तत्त्वसं० का० 1344 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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